Wednesday 25 May 2016

इंदपुर (इंदौरा) टू बाथू की लड़ी (ज्वाली)

कुछ रास्ते आपके जीवन में खास महत्व रखते हैं | खास कर वो जो आपके घर की तरफ जाते हैं | खैर छोडिए जयदा भावुक बातें न करते हुए अब यात्रा पे आता हूँ |
पेपर ख़त्म होते ही मैं घर चला गया | मेरा घर जो की अब गाँव इंदपुर तहसील इंदौरा, काँगड़ा जिला हिमाचल प्रदेश  में पड़ता है जो कभी गांव करडियाल तहसील ज्वाली जिला काँगड़ा में बसा करता था | दोनों स्थानों के बीच की दुरी तो लगभग 50 km है लेकिन संकरा खस्ताहाल  पहाड़ी रास्ता तय करने में गाड़ी में भी 1:30 घंटा लग जाता है |
वैसे ज्वाली जाने का कोई निश्चित प्लान नहीं था | 17 मई  की शाम मैं घर पहुंचा | 18 की सुबह 9 बजे तक माता जी और पिता जी स्कूल के लिए निकल गए और मैँ नाश्ता करने बैठ गया | खाना खाते खाते अचानक ही दिमाग में आया की साइकिल पे इतना घूम लिया पर अपने घर नहीं गया फिर इतना घूमने फिरने का फायदा क्या ?
जल्दी जल्दी खाना खाया और साइकिल निकाल ली | एक पानी की बोतल लेकर करीब 9:30 घर से निकल पड़ा |
मई के महीने की तेज धूप और उसमें साइकिल चलाने का जज़्बा रख मैँ घर से चल तो पड़ा लेकिन थोड़ी ही दूर जाने के बाद तीखी चढाई शुरू हो गई | इंदपुर से सहौड़ा तक तो 4  km की खड़ी चढाई है, जोश जोश में वह तो चढ़ गया लेकिन सहौड़ा से 3 km आगे झंगराडा गाँव तक की चढाई चढ़ना तो टेडी खीर ही साबित हुआ | 1 घंटे में किसी तरह बिना रुके 7 km की चढाई पूरी हुई | इंदपुर और झंगराडा के बीच में कई जगह चढाई इतनी तीखी है कि साइकिल का अगला टायर तक उठ जाता है |
झंगराडा पहुँचने के बाद वहां रेस्ट की और पानी पिया | झंगराडा से दो रास्ते कट जाते हैं, एक जसूर की ओर दूसरा रेहन की ओर | मैँ  रेहन कि ओर चल पड़ा | रास्ता तो अब और भी संकरा और खस्ताहाल हो गया था |
बीच बीच मैं जब कभी बस या ट्रक को क्रॉस करना पड़ता तो साइकिल रोक कर साइड में खड़ा होना पड़ता था | खैर चढाई और उतराई दोनों ही थीं तो चढाई चढ़ते समय की थकान उतरते समय दूर हो जाती |
झंगराडा से रेहन रोड पर आप वनस्पति को बदलते देख सकते हैं | शुरुआत में मैदानी इलाकों के पेड़ पौधे हैं और बीच में चीड़ जैसे पहाड़ी पेड़ भी दिखाई दे जाते हैं | कई जगह सीडी नुमा खेत भी दिखाई देते हैं | दूर से दिखते पहाड़ों के नज़ारे मन मोह लेते हैं |



1 घंटे बाद मैं रेहन पहुंचा | वहां से भरमाड़ की तरफ चल पड़ा | रेहन से भरमाड़ के बीच में शिबोथान मंदिर आता है | यहाँ हर साल मेला लगता है, बच्च्पन्न में गर्मियों की छुट्टियों में बुआ जी के साथ तो बहुत आना जाना हुआ करता था यहाँ | बाहर से ही माथा टेक अपने रास्ते पे चलता रहा |

भरमाड़ पहुँच कर ज्वाली रोड पकड़ ली |
इस रास्ते पे चलते चलते बहुत सी पुरानी यादें ताज़ा हो उठीं | जब हमारा घर बन रहा था तब बजाज चेतक के आगे खड़े होकर पिता जी के साथ ज्वाली इंदौरा रूट पर आना जाना लगा रहता था और बुआ जी के घर (गाँव पट्टा जट्टिआं) से तो खेतों के बीच में से शॉर्टकट से शिबोथान पैदल ही आया जाया करते थे |
कुछ अनुभव ऐसे होते हैं जिनको याद करने से थकान, प्यास स्वतः ही मिट जाती है | भरमाड़ से मैरा पुल पर पहुंचा |मैरा पुल बूल नाम की खड् पे बना है जो की व्यास की सहायक नदी है |

मैरा पुल से सामने पहाड़ों का दर्शन करके आगे बढ़ गया | थोड़ी आगे जाने के बाद ज्वाली रोड से राइट टर्न करके मतलाड की ओर हो लिया | बच्च्पन में कई बार घर से नाराज होकर या मस्ती में मैं छोटी साइकिल लेके मतलाड की ओर आ जाया करता था और मेरी माता जी मेरे पीछे पीछे |
पुरानी कच्ची सड़कों की जगह कंक्रीट बिछ गई है और कच्ची गलियों के साथ मेरे क़दमों के निशाँ भी मिट चुके हैं,  चलो डेवलपमेंट तो हुई है |

करडियाल पहुँच कर लगा की अभी शरीर में  और ऊर्जा बाकि है | घर की तरफ न जाकर मैं फारियां से पपानी की ओर चल पड़ा | मंज़िल थी बाथू की लड़ी |


बाथू की लड़ी इतिहास के उन मंदिरों में से है जिनके बारे में सही से कोई नहीं जानता | पौंग डैम में जब जलस्तर बढ़ जाता है तो यह मंदिर जलमगन हो जाते हैं | अधिक जानकारी के लिए गुरु जी का लिंक देखें  |
वैसे बाथू की लड़ी तक जाने का उदेश्य केवल मंदिर देखना ही नहीं था | पौंग डैम बनने से पहले यहाँ से करीब 10 km आगे दरोका नाम का स्थान हुआ करता था जहाँ किसी समय मेरे पुरखे रहा करते थे | सरकार ने उपजाऊ जमीन लेकर राजस्थान में रेत के टीले तो दिए मगर अपने स्थान से विस्थापित होने का दर्द तो कभी दूर नहीं हो सकता | खैर अब तो पानी ही पानी है और बहुतों के रेत के टीले आज भी बाबुओं की फाइलों में इंदिरा गांधी नहर का पानी पी रहे हैं  |
पपानी से फ्लड एरिया शुरू हो जाता है और यहाँ से बाथू की लड़ी करीब 5 km  दूर  है | कच्चा रास्ता और भूमि पर निर्जलीकरण के कारण पड़ी बड़ी गहरी दरारें पपड़ी सी सतह का सा एहसास दिलातीं  हैं | धूप की ताकत तो सुखी जमीन से मिल कर मुझे निढाल किये जा रही थी | खैर आखिरकार में अपनी मंज़िल पर पहुँच ही गया | मंदिर को देख कर ऐसा प्रतीत होता है मानो इतिहास आज भी हमारे वर्त्तमान में सीना ताने खड़ा है |



भरी दोपहर में मंदिर में कोई नहीं था | कुछ देर आतीत  के आगोश में सुस्ता लेने के बाद फोटो वगैरा खींच कर घर चला गया |