Wednesday 31 August 2016

दिमाग की लड़ाई


थकान से चूर रुक गया है मुसाफिर
साँस की भी साँस चढ़ चुकी है
बदन है पसीने से तर
होंठों की नमी भी सूख चुकी है
खड़ा है लेकिन बैठता नहीं
जानता है बैठ गया तो
बैठा ही रह जायेगा
क्या सोच रहा है वो ?
क्या चल रहा है उसके ज़ेहन में ?
शरीर तो दम ले लेगा रुकने पे
लेकिन क्या वो दिमाग को मना पायेगा
की चलता रहे अपनी मंज़िल की ओर
शायद जानता है वो रहस्य
की लड़ाई तो सारी "दिमाग की है".......
आज दिमाग, सोच और नज़रिये की बात करते हैं | भगवान ने हम सब को एक इच्छयाशक्ति रूपी ब्रह्मास्त्र दिया है और ये ऐसी चीज़ है जो जहन्नुम को जन्नत और जन्नत को जहन्नुम बना सकती है | मेरा एक फार्मूला है जो मैं आपको आखिर मैं बताऊंगा, उससे पहले कुछ अनुभव साँझा कर रहा हूँ |
30 दिसम्बर 2015 के दिन जब मैं अपने घर गांव इंदपुर, तहसील इंदौरा, जिला काँगड़ा, हिमाचल प्रदेश, जो कि चंडीगढ़ से 243 Km दूर है; साइकिल से गया था तो घर पहुँचने के बाद मैंने अपना स्टेटस अपडेट किया था जो कि इस प्रकार था, "When you travel alone your mind is your only enemy"
मेरे गुरुजी श्रीमान तरुण गोयल जी ने वो स्टेटस पड़ा और मुझे ब्लॉग लिखने को कहा, उस स्टेटस के माध्यम से मैं जो बात कहना चाहता था, वो उन तक पहुँच गयी थी | पहले मैं टाल मटोल करता रहा लेकिन कुछ लोग होते हैं जिनकी इज्ज़त स्वतः ही आपके ज़ेहन में बन जाती है, गुरूजी भी उन्ही शख्सियतों में से हैं और मैं मना नहीं कर सका | 2:30 घंटे में मैंने पूरी कहानी लिख डाली | मेरे ब्लॉग की सबसे पहली कहानी, अक्सर मैं उसे पढ़ता हूँ और अपनी गल्तियों को देखता हूँ लेकिन उससे ज्यादा मैं अपने होंसले को देखता हूँ कि मैं 243 Km चला गया, कैसे ?
उस समय तो मैं शारीरिक रूप से भी फिट नहीं था तो फिर कैसे मैं 243 Km चला गया ? आज जब मैं यह कारनामा कर चुका हूँ तो कह सकता हूँ कि, "बहुत मज़ा आया" |
मैंने एक साइकिल ली थी 5300 कि; एक हफ्ता चलाई और मन किया कि इस साइकिल पे कुछ बड़ा किया जाए | नए साल का दौर था तो मन किया कि घर ही चला जाए | 30 दिसम्बर को सुबह 6 बजे मैं अपने हॉस्टल से निकल गया घर के लिए बाकि कहानी तो आप यहाँ पढ़ सकते हैं लेकिन आज के विषय पे ध्यान दें तो महत्त्व्पूर्ण बात यह होगी कि वो क्या चीज़ थी जिसने मुझे ऐसा करने के लिए प्रेरित किया ?
खैर इस प्रश्न का मैं जवाब दूंगा कि वो मेरे ज़ेहन कि ज़रूरत थी, शायद कुछ था जो मुझे ऐसा करने के लिए कुछ वक़्त से प्रेरित कर रहा था | जब भी मैं साइकिल चलता मुझे लगता मैं लंबे समय तक साइकिल का साथ निभा सकता हूँ | 30 दिसम्बर कि रात को तो मैं सो भी नहीं पाया, सोच तो लिया था कि घर जाऊंगा लेकिन डर तो लगता ही है ऐसा पंगा लेने में | खैर सब कुशल मंगल रहा और अब मैं कह सकता हूँ कि, "बहुत मज़ा आया" |
चलिए अब बात करते हैं इंसानी शरीर की क्षमता की; मेरा मानना है कि आपकी शारीरिक ताक़त सिर्फ 40 % मायने रखती है बाकि 60% आपकी इच्छयाशक्ति | आपने एवेरेस्ट पे बिना किसी साज़ो सामान के रात बिताते पर्वत आरोहियों के किस्से जरूर सुने होंगे | तो वो क्या चीज़ थी कि वो बिना आशियाने के ठण्ड सेहन कर सके ?
यही इच्छयाशक्ति का चमत्कार है जो ठण्ड का सामना हो या बीहड़ों में ज़िंदा रहना सब परिस्थितियों में आपको नवीन ऊर्जा प्रदान करता है | जब आप थक हार के निढ़ाल हो के बैठ जाते हैं और तमाम तरह कि बातें आपके ज़ेहन में आती हैं तब यह मंज़िल तक पहुँचने कि पक्की इच्छयाशक्ति ही होती हो जो आपको उठाती है चलते रहने को बोलती है और मेरे साथ जब भी ऐसा हुआ है तो मैंने महसूस किया है अपने अंदर एक नवीन उर्ज़ा को, मंज़िल तक पहुँचने कि एक लालसा को जो कि मेरे स्वभाव और चरित्र में आम तौर पे नज़र नहीं आती |
चलिए अब बात करतें हैं नकारात्मक सोच की , अक्सर लोग थक जाने पे कहते हैं कि हमसे नहीं होगा, अब बस, मैं जा रहा वापिस, अब मैं नहीं बढ़ सकता, आगे तुम चलो, मैं रेस्ट करके आता हूँ | सबसे पहले तो नकारात्मक सोच ही हावी होती है और हम बैठ जाते हैं और फिर उठने का मन ही नहीं करता ऐसे समय में मैं सोचता हूँ उस ख़ुशी और संतुष्टि के बारे में, जो मंज़िल तक पहुँचने पे मिलेगी | कल्पनात्मक ही सही लेकिन यह बहुत फायदेमंद साबित हुआ है, मेरा आज़माया हुआ तरीका है और यही वो फार्मूला है जिसके बारे में मैंने शुरुआत में बात कि थी | चलिए अब आखिर में मैं यही कहूंगा की सड़क, पहाड़ और बीहड़ किसी के रिश्तेदार नहीं, हमेशा चौकन्ने रहें |
मन के हारे हार है और मन के जीते जीत
गीत नया गाता हूँ
गीत नया गाता हूँ
टूटे हुए तारों से , फूटे बसंती स्वर
पत्थर की छाती में उग आया नव अंकुर
झड़े सब पीले पात, कोयल की कुहक रात
प्राची में अरुणिमा की रेख देख पता हूँ
गीत नया गाता हूँ
टूटे हुए सपने की सुने कौन सिसकी
अंतः की चिर व्यथा, पलकों पर ठिठकी
हार नही मानूँगा , रार नई ठानूँगा
काल के कपाल पर लिखता, मिटाता हूँ
गीत नया गाता हूँ
गीत नया गाता हूँ
(अटल बिहारी वाजपेयी)

नोट: इस पोस्ट में तमाम जानकारी व्यक्तिगत अनुभवों पे आधारित है| कृपया विवेक से काम लें |

Friday 26 August 2016

भद्रवाह कैलाश यात्रा भाग-2

बाबा जी तेरे कुण्डलुए कुण्डलुए बाल
विच माता गंगा विराजे हो
गले तेरे नागडूआँ दे हार
मथे तेरे चंदा साजे हो
बाबा जी तेरे कुण्डलुए कुण्डलुए बाल.........
(हे भोलेनाथ तुम्हारे कुण्डल केशों में माता गंगा का निवास है, आपके गले में नागों की माला है और आपके माथे पे चंद्रमा सुशोभित है........)
यही पहाड़ी भजन गाते हुए गुरूजी और मैंने छतरगाला से कैलाश की ओर अपनी यात्रा 18 अगस्त दोपहर लगभग 1:30 बजे शुरू की | मौसम का मिज़ाज़ ठीक नहीं था | रात को बारिश हुई थी और भरी दोपहर में भी धुंध पड़ी हुई थी | अभी कुछ ही दूर चले थे कि कुत्ते के भौंकने कि आवाज़ सुनाई दी; कुछ और आगे बड़े तो आवाज़ और तेज़ हो गई और सामने था अपने डेरे कि रखवाली करता पहाड़ी कुत्ता |
हम रुक गए लेकिन कुत्ता तो मानो हम पे टूट पड़ना चाहता था | डर-डर के थोड़ा और आगे बड़े तो देखा कि कुत्ता तो डेरे कि दीवार से बंधा है | परदेसियों को देख कर पागल हुआ कुत्ता मानो हमें काट कर अपनी वफ़ादारी का सबूत देना चाहता था, गनीमत थी कि बंधा था और हमने जल्दी जल्दी वहां से खिसकने में ही अपनी भलाई समझी | जहाँ का कुत्ता तक इतना चौकन्ना है वहां आतंकवादी पता नहीं कैसे घुस गए ?
खैर कुत्ते से छूटे तो अगला रोड़ा कीचड ने अटका दिया | रात कि बारिश से भीगी हुई कीचड़ बनी पहाड़ों कि चिकनी मिटी में जूते धंसने लगे | कभी कभी तो ऐसे फिसल जाते जैसे गर्म तवे पे मख्खन फिसलता है | खैर कुछ और आगे जाने पर जंगल शुरू हो गया | मैं थोड़ा आगे आ गया था और जंगल का नज़ारा सुन्दर होने के साथ साथ डरावना भी था | एक दम आपबीती सीरियल कि शुरुआत में आने वाले सीन कि तरह !
मैं रुक गया और गुरूजी के आने के बाद हमने इक्कठे इसे पार किया |
धुंध और ठंडी हवाएँ चल रहीं थीं, जिसमें न कुछ दिखता है और न कुछ महसूस होता है, पता चलता है तो फेफड़ों से नमी निचोड़ती सर्द हवा का और हम दोनों बैठ गए एक बड़े ठन्डे पत्थर पे; पानी पिया और कुछ तली हुई मूंगफली खाई | कुछ देर आराम करने के बाद एहसास हुआ कि जूते तो भीग चुके हैं खैर अब किया भी क्या जा सकता था | अगर मोज़े बदलते तो वो भी भीग जाते, कीचड में छप-छप करते हुए हम फिर से चल दिए अपनी मंज़िल कि ओर |
आगे घास का मैदान था और मैदान ख़त्म होते ही बारिश से बचने के लिए बनायी गयी एक कोठरी |
उस स्थान से दो रास्ते अलग हुए; एक चट्टान पे लगा सफ़ेद निशान ऊपर कि ओर जाने का इशारा कर रहा था और दूसरी ओर थी पगडण्डी जो सीधे-सीधे जा रही थी | हम सफ़ेद निशान द्वारा दर्शाये गए मार्ग पर चलते हुए ऊपर कि ओर बढ़ने लगे | चढाई और उसपे बिछी बड़े-छोटे पत्थरों कि चादर, देख कर ही होंसला पस्त हो गया |
रास्ता अब कठिन हो गया था | सर्द तेज़ हवा और पसीने से भीगा बदन, ज़िन्दगी का असली स्वाद चखा रहे थे | खैर अब मैं लौट आया हूँ तो यही कहूंगा: " बहुत मज़ा आया ! "
बड़े ढीले पत्थर और धुंध में सफ़ेद निशानों को तलाशतीं मेरी आँखें, दोनों ही लुका-छिपी खेल रहे थे | एक निशान के मिलने पे दूसरे को ढूंढता और फिर दूसरे निशान कि ओर बढ़ता | कुछ देर तो ये तरकीब काम आयी लेकिन फिर दूसरा निशान ढूंढे न मिला | मैं रुक गया पीछे से गुरूजी भी आ गए | सलाह करने के बाद हम फिर से चलने लगे शायद गुरूजी ने अपने त्रिनेत्र से रास्ते को पहचान लिया था और वो आगे-आगे पथप्रदर्शक बन चलने लगे |
काफी दूर चलने के बाद हमें आखिरकार सफ़ेद निशान मिल ही गया |
लगता है बीच में बड़े बड़े पत्थरों पर से गुजरते समय निशान लगाने वाला थक गया होगा या हो सकता है उसके चूने का बज़ट कम हो | खैर कुछ भी हो धुन्ध में सही रास्ता ढूँढना तो गुरूजी का ही कमाल था, मैं अकेला होता तो खो गया होता | धुन्ध इतनी घनी थी कि 10 m से आगे सब सफ़ेद |
कुछ दूर चलने पे नियमित अंतराल पे निशान मिलने लगे और मैं फिर से आगे चलने लगा | चलते चलते एक बड़े पत्थर पे कुछ लिखा दिखा | धुन्ध बहुत थी तो पास जा के देखा तो लिखा था "WELCOME" |
WELCOME हैं! किधर, कहाँ! यहाँ तो कुछ भी नहीं है; चारों ओर जिधर देखो पत्थर ही पत्थर, फिर ये WELCOME कहाँ को !!!
गुरूजी भी आये और सोच विचार करके उन्होंने चोटी कि ओर लगे निशान कि तरफ चलने को कहा | चोटी पे पहुँच कर देखा तो वहां लगा था एक लाल रंग का झंडा | झंडे से थोड़ी दूर दूसरी ओर कि ढलान पे कुछ पत्थर पूरे सफ़ेद दिखे, जैसे निशान लगाने वाले ने बचा हुआ सारा चूना यहीं उड़ेल दिया हो |
आब कहाँ जाएं, किस ओर है कैलाश इतनी धुन्ध में कुछ दिखाई भी तो नहीं दे रहा;हम दोनों ही असमंजस में थे | गुरूजी ने भोलेनाथ का जयकारा लगाया मैंने भी सीटी बजाई पर किसी का कोई जवाब नहीं आया | कुछ देर सोच विचार करने के बाद हमने दूसरी ओर कि ढलान से नीचे उतरने का फैसला किया |
नीचे उतारना तो और भी मुश्किल था | इतने ढीले पत्थर कि गलत पांव पड़ते ही सीधा नीचे ही चले जाएं |
नीचे कि ओर कुछ दिखाई भी न दे, धुन्ध ही धुन्ध आगे पीछे ऊपर नीचे | आगे आगे गुरूजी और पीछे पीछे मैं, चलते चलते गुरूजी ने पूछा अगर फिर से ऊपर चढ़ना पड़ा तो? बस उस समय मेरा चेहरा देखने वाला रहा होगा |
खैर और नीचे उतरने के बाद हमें टीन कि चमकदार छत दिखाई दी और हमारी जान में जान आयी |
चलिए मंज़िल तो दिख रही थी लेकिन वहां पहुंचना इतना भी आसान नहीं था, अभी बड़े बड़े पत्थरों को लांघना बाकि था | कुछ पत्थरों को पार किया तो झील भी दिख गई |
क्या नज़ारा था और उस मोहित कर देने वाले रमणीय दृश्य को देख कर ये शब्द स्वतः ही ज़ेहन में आ गए :
गर फिरदौस बर -रूएे ज़मीं अस्त !
हमी अस्तो ,हमी अस्तो ,हमी अस्त !!!
अगर धरती पर कहीं स्वर्ग है , तो वो यहीं हैं , यहीं है , यहीं है
लगभग 6 बजे तक हम भोलेनाथ के दरबार में हाज़री लगा चुके थे | एक टेंट में सामान रखा, झील में डुबकी लगा के सारी थकान मिटाई और भोलेनाथ के दर्शन किये |
फिर फोटो वगैरा खींच कर हम बैठ गए अपने फौजी भाईयों के पास | एक फौजी भाईसाहब जो कि भरमौर से थे, उनके साथ हमारी काफी बातचीत चली | उनसे यह पता चला कि हम सीधा "कैलाश" चढ़ के आये हैं, सबसे मुश्किल और छोटे रास्ते से और जिसे हम धुंध समझ रहे थे वो तो बादल थे, जो कि कैलाश कि इस ओर से टकराकर, पर्वत की परीधि को छू कर अपना रास्ता तलाशतें हैं | जबकि सही रास्ता दूसरा था सीधी पगडण्डी वाला, जो कि पहाड़ कि दूसरी ओर से चलता हुआ बिना बड़े-बड़े पत्थरों से गुज़रे सीधा कैलाश कुण्ड तक आता है | आप अगर कभी जाएं तो बारिश से बचने के लिए बनाये गए आशियाने से दायीं (right) ओर के रास्ते से ही जाएं | इस रास्ते पे लाल रंग के निशाँ लगे हैं और रास्ते में पानी के सोते और आराम करने के लिए कई स्थान हैं |
रात को ये भाईसाहब हमें गरम कम्बल भी दे गए | धन्य हों भारतीय सेना के जवान !
हमारे ही टेंट में दो लोग और रुके; उत्तम जी और कुलदीप जी,जो कि उधमपुर से मिचेल माता के मंदिर (35 km) और वहां से कैलाश कुंड (15 km) नंगे पांव ही आ गए | अगर कोई चीज़ उन्हें चला रही थी तो मैं कहूंगा कि ये थी उनकी गहन आस्था | दोनों बहुत ही नेकदिल और भोले इंसान हैं, एक दम फकीरी में जीवन यापन करते हैं और हमेशा खुश रहते हैं |
अगली सुबह 19 अगस्त को हम तीनो ने मिल के झील मे स्नान किया | स्नान के बाद उत्तम जी और कुलदीप जी को अलविदा कह हम वापिस निकल पड़े | फौजी भाइयों ने हमें सही रास्ता समझा दिया | आज मौसम खुशनुमा था | धूप निकली हुई थी और नज़ारे तो देखते ही बनते थे |
हमने लगभग 8 बजे नीचे उतारना शुरू किया | पत्थरों को पार करने के बाद पगडण्डी आ गई | कल वाले रास्ते कि तुलना में तो यह रास्ता हाईवे था | हम इसपे सरपट दौड़े चले जा रहे थे |
इस रास्ते पे लाल पेंट से निशान लगे थे | कैलाश कि चढाई चढ़ने के बाद चोटी से सुदूर ज़ांस्कर के पहाड़ भी नज़र आने लगे | क्या नज़ारा है, "दूर ज़ांस्कर के पहाड़ नीचे बायीं ओर भद्रवाह और दायीं ओर पदरी गली पास कि हरी घास", ऐसे दृश्य तो मन मोह लेते हैं |
11 बजे तक हम नीचे उत्तर आये और नीचे छतरगाला में फौजी चौकी में बैठ गए | फौजी भाइयों के साथ चाय और खाना खाने के बाद हम बस का इंतज़ार करने लगे | हमारा इरादा तो बणी से बिछोली फिर लखनपुर हो के पठानकोट पहुँचने का था|
1 बजे एक मेटाडोर आयी जो कि बणी (60 km) जा रही थी | यह मेटाडोर बणी 3:30 बजे पहुंची और बिछोली कि ओर जाने वाली आखिरी बस 3 बजे ही निकल चुकी थी |
रात बणी में बिताने के बाद 20 अगस्त को सुबह 5 बजे हमें सीधे लखनपुर कि गाडी मिल गई | लगभग 10:30 बजे हम लखनपुर पहुंचे और 11:30 बजे पठानकोट, वहां से गुरूजी अपने ससुराल चले गए और मैं मौसी के घर से साइकिल लेके करीब 1:30 बजे घर पहुंचा |
बणी में रात रुकने का खर्च = 300 रुपए (दो लोगों का)
रात का खाना = 100 रुपए (दो लोगों का)
बणी से लखनपुर किराया = 500 रुपए (दो लोगों का)
लखनपुर से पठानकोट = 50 रुपए (दो लोगों के)
पठानकोट से घर = 1 घंटा साइकिल से (अकेला)
इस तरह 16 अगस्त कि शाम से शुरू हुई मेरी भद्रवाह कैलाश यात्रा 20 अगस्त कि दोपहर को सम्पूर्ण हुई |
चोला चुकी के गे असां दो पाड़ी
जिना डुग्गरे दा देस हाँ दिखी लेया
हरियां भारियां सोहनियां वादियां दे लोक माणु
जिना ते रस्ता वो असां हाँ पूछी लिया
बढे असां पहाड़ां च कुत्ते कि पूछी करी
वैरी ओ पता नई कियां बड़ी गेया ?
सुण्या था मीठी बड़ी डोगरी बोली
मैं तां लिखने दा पेत भी सीखी लेया
हिंदी अनुवाद :
झोला उठा के गए हम दो पहाड़ी
जिन्होंने डुग्गर(जम्मू और आस-पास) देश हाँ देख लिया
सुन्दर हरी भरी वादियां के भोले लोग
जिनसे रस्ता हाँ हमने पूछ लिया
पहाड़ों में प्रवेश किया हमने एक कुत्ते से पूछ के
(रखवाली वाले कुत्ते के सन्दर्भ में )
दुश्मन (आतंकवादी) पता नहीं कैसे घुस गया ?
सुना था मीठी बड़ी है डोगरी बोली
मैंने तो लिखने का भेद भी सीख लिया |
बायीं और वापिस आने का और दायीं और जाने का समुन्दर तल से ऊंचाई का डाटा (गुरूजी की वेबसाइट से लिया हुआ)


इस यात्रा का पिछला भाग यहाँ पढ़ें


Monday 22 August 2016

भद्रवाह, (जिला डोडा जम्मू एवं कश्मीर) कैलाश यात्रा भाग-1


पहाड़ों के जिस्मों पे बर्फ़ों की चादर
चिनारों के पत्तों पे शबनम के बिस्तर
हसीं वादियों में महकती है केसर
कहीं झिलमिलाते हैं झीलों के जेवर
यहाँ के बशर हैं फ़रिश्तों की मूरत
यहाँ की जु़बाँ है बड़ी ख़ूबसूरत
यहां की फ़िजाँ में घुली है मुहब्बत
यहाँ की हवाएँ मुअत्तर-मुअत्तर
सुखन सूफ़ियाना, हुनर का खज़ाना
अजानों से भजनों का रिश्ता पुराना
ये पीरों, फ़कीरों का है आशियाना
यहाँ सर झुकाती है कुदरत भी आकर...
(आलोक श्रीवास्तव द्वारा रचित कविता -"है कश्मीर धरती पे जन्नत का मंज़र" में से लिया गया)
यात्रा का सारा प्रोग्राम महीना पहले से ही सेट था | शारीरिक रूप से फिट था; लेकिन मानसिक रूप से मैं पूरी तरह से फिट था, कि नहीं ये तो मैं नहीं बोल सकता था | जम्मू और कश्मीर ये शब्द सुनते ही दिमाग में आतंकवाद का ख्याल आता है | चलिए जम्मू और कश्मीर की बात चली है तो मुझे पुरानी बात याद आ गई | बात 2007 की है जब मेरी बहन कश्मीर में NIT श्रीनगर में पड़ती थी | अक्सर फोन पे रोया करती थी | तब मैं उसका मज़ाक उड़ाया करता था | मैं सोचता था कि शायद उसे घर की याद आती होगी तो रोती होगी लेकिन कश्मीर की समस्या उस समय इतनी गंभीर थी कि मेरी बाल्यबुद्धि की समझ में न आ सके |
खैर अब यात्रा पे आता हूँ | 16 अगस्त को शाम 6 बजे मैं अपनी साइकिल उठा के घर से पठानकोट के लिए निकल पड़ा |
मेरे घर इंदपुर(इंदौरा) से पठानकोट लगभग 24 Km दूर होगा | 7:15 बजे पठानकोट पहुँच गया |
अपनी मौसी के घर साइकिल खड़ी करके और चाय पानी पीने के बाद करीब 8 बजे पठानकोट बस स्टैंड पहुँच गया | वहां गुरूजी पहले ही पहुँच चुके थे | हमने जम्मू की बस का पता किया तो पता चला अगली बस रात 1 बजे आने वाली थी | समय व्यतीत करने के लिए हम खाना खाने चले गए |
करीब 11 बजे वापिस बसस्टैंड आये | एक बेंच पे सामान रख कर लेट गए | बातों बातों में 1 बज गया और राजस्थान रोडवेज की बस भी आ गई | हम बस में चढ़े तो देखा की दूसरी कतार में तीन वाली सीट ख़ाली है; हम अपना सामान वहां रखने ही वाले थे कि कंडक्टर बोला वहां मत बैठो वहां मैं सोऊंगा |
हैं!!! हैं! भाईसाब क्या ?
वो फिर से बोला वहां सोऊंगा मैं !!!!
गुरूजी और मेरी हंसी छूट गयी |
साला ऐसा कंडक्टर पहली बार देखा रे;
सवारी को बोलता है सीट पे मत बैठो वहां मैं सोऊंगा ????
घोर कलयुग आ गया है !!!
खैर हम दो वाली सीट पे बैठ गए और बस चल पड़ी | 93 रुपए प्रतिव्यक्ति, जम्मू तक का टिकेट भी ले लिया | सुबह करीब 3 बजे हम जम्मू पहुंचे | वहां से हम दो चौक दूर डोडा, किश्तवाड़, पाडर और भद्रवाह जाने वाली गाड़ियों के स्टैंड तक पैदल चले गए |
जी हाँ डोडा किश्तवाड़ पाडरररररररररररररर
यही चिल्ला चिल्ला के बोला जा रहा था ताकि कोई सवारी घर में सोई भी हो तो उठ के आ जाए |
करीब 3:30 बजे हम डोडा, किश्तवाड़ और पाडर जाने वाली गाड़ी में बैठ गए | थोड़ी ही देर बाद 2X2 सीट्स वाली हमारी छोटी बस फुल हो गई और चल पड़ी | जम्मू से उधमपुर और उधमपुर से पत्नीटॉप पहुँचे |
ड्राइवर बस इतनी तेज चला रहा था की सारे रास्ते हमारी जान हलक में ही अटकी रही | उतराई में भी एक्सीलेटर दबा के रख रहा था | अगर बस के पंख लगे होते तो टेकऑफ हो गया था समझो !!
पत्नीटॉप की चढाई पे बस का टायर पंक्चर हो गया | शायद अत्याधिक गति के आगे बेबस हो गया था बेचारा |
खैर थोड़ी ही देर में टायर बदल दिया गया | अब तक सूर्य उदय हो चुका था |
पत्नीटॉप पर्वतीय वनस्पति से भरपूर एक अति रमणीय पर्यटन स्थल है |
पत्नीटॉप पार करके हम बटौत पहुंचे, वहां से श्रीनगर जाने वाली सड़क से अलग हो गए और डोडा की तरफ दायीं (right) ओर मुड़ गए |
बटोत से सेओत और सेओत से गोहा होते हुए हम पुल डोडा पहुंचे | पुल डोडा से दो रास्ते अलग हो जाते हैं; एक रास्ता चेनाब पे बने पुल से पार जाते हुए किश्तवाड़, पाडर की तरफ जाता है और दूसरा रास्ता सीधा भद्रवाह की ओर | हमने जम्मू से पुलडोडा की टिकेट ली थी तो हम यहीं उतर गए | जम्मू से पुल डोडा का किराया = 190 रुपए (प्रतिव्यक्ति) |
पुल डोडा से हम एक टाटासुमो में भद्रवाह पहुंचे जो की वहां से 30 Km ही दूर था | करीब 9:30 बजे हम भद्रवाह पहुँच चुके थे |
भद्रवाह के सेरी बाज़ार में हम उतरे | उतरते ही चारों ओर नज़र दौड़ाई तो भद्रवाह के प्राकृतिक सौंदर्य ने मन मोह लिया | ईमारत के नीचे दुकाने और ऊपर घर, अपने अपने काम में व्यस्त लोग, बोझा ढ़ोते खच्चर, पहरा देते सेना तथा J&K पुलिस के जवान;
जी हाँ जवान, जिनके हाथ में बन्दूक है और नज़रें हर गतिविधि पर | सलाम है इन जवानों को जिनके कारण भद्रवाह काफी समय से शांत बना हुआ है जबकि कश्मीर में अब भी कर्फ्यू लगा है | मन तो बहुत किया कि फोटो खींच लूँ लेकिन देश की आंतरिक सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए मैंने कोई चित्र नहीं उतारा | वैसे भी भद्रवाह कि सुंदरता का असली स्वाद तो वहां जा के देखने में ही है | ऐसे ही थोड़ी न इस जगह को "छोटा कश्मीर" कहा जाता है !!!
अगर जा रहे हों तो पहचान पत्र ले के जाना न भूलें और इसे हमेशा अपने पास रखें |
सबसे पहले वासुकि नाग जी के मंदिर में जा के माथा टेका | पुजारी जी से बात की तो पता चला की आज कैलाश जाना संभव नहीं हो पाएगा | हमने उनसे रहने के स्थान के बारे में पूछा तो उन्होंने हमें गुप्त गंगा मंदिर में जाने का निर्देश दिया | गुप्त गंगा मंदिर पहुँच कर सर्वप्रथम साथ बहने वाले नीरू नाले में स्न्नान किया, माथा टेका और सारी थकान मिटाई |
मंदिर में रहना हमें अच्छा नहीं लग रहा था तो हमने वापिस सेरी बाजार जा कर नीचे कि तरफ लक्ष्मी नारायण जी के मंदिर के पीछे, राष्ट्रिय स्वयं सेवक संघ के कार्यालय में रहने का निर्णय किया | कार्यालय में विश्राम करने के पश्चात शाम को हम सेरी बाजार घूमने निकले | हमारा मकसद तो सुबह कैलाश यात्रा के श्रीगणेश स्थान छत्रगाला तक जाने वाली गाड़ियों के बारे में पता करना था |
कुछ पूछताछ के बाद सुबह 9 बजे और फिर 10 बजे बणी कि ओर जाने वाली मेटाडोर का पता चला | एक टैक्सी वाले से मोलभाव करने के पश्चात वो 1200 रुपए में चलने के लिए तैयार हो गया | सेरी बाज़ार में खाना खाने के पश्चात वापिस कार्यालय जा के सो गए |
दो लोगों के खाने का खर्च = 200 रुपए |
सुबह 6 बजे तैयार हो के हम सेरी बाजार पहुँच गए | टैक्सी वाले को फ़ोन किया तो वह सो रहा था उसे जल्दी आने को कहा | इंतज़ार करते करते 7 बज गए | जम्मू जाने के लिए बसें लगीं थी लेकिन कोई भी बणी कि तरफ नहीं जा रहा था |
आज के ही दिन चनौत मंदिर से मिचेल यात्रा भी शुरू हो रही थी और राखी का त्यौहार भी था | सेरी बाजार में भक्तों और उनकी गाड़ियों कि भीड़ बढ़ती ही जा रही थी |
8 बजे एक पुलिस वाले ने एक ड्राइवर को हमारे पास भेजा जो कि बणी कि तरफ जा रहा था | हमने उससे किराया पूछा तो उसने बताया 100 रुपए सवारी | हमारा टैक्सी वाला अभी तक नहीं आया था तो हमने उसका प्रोग्राम कैंसिल किया और इसकी गाड़ी में बैठ गए | ये वाली गाड़ी 9 बजे चलने वाली थी | 1000 रुपए बचने के लिए एक घंटे का इंतज़ार तो किया ही जा सकता था |
9 बजे गाड़ी चली और कुछ दूर बसे सार्टिंगल गांव में रुक गई | सवारी कम होने कि वजह से यह ड्राईवर जाना नहीं चाहता था | खैर 10 बजे मेटाडोर आयी और हम उसमें चढ़ गए |


ये मेटाडोर 11 बजे चली और 1 बजे तक हम अपने यात्रा श्रीगणेश स्थान छतरगाला पहुँच ही गए |
यहाँ एक फौजी चौकी है | सड़क से ऊपर कि तरफ चढ़ के चौकी के साथ मंदिर है | चौकी के सामने कि तरफ कैलाश जाने का रास्ता है | फौजी भाइयों को अलविदा कह कर हम कैलाश कि ओर चल दिए |

‘पंजाल राज जिस धरती दे, पैरें इच सीस नुआंदा ऐ,
अऊँ उस मुल्खे दा पैंछी आँ जो डुग्गर देस खुआंदा ऐ।’
(जिसके चरणों में पंचाल राजा भी सिर झुकाते हैं, जो डुग्गर देस के नाम से जाना जाता है मैं उसी देस का पक्षी हूँ)
उत्थैं गैं शिव ते गौंरां ने, ब्याह अपना बेई रचाया सा
उत्थैं गैं बीर बरागी नै, घर अपना आई बनाया सा
उत्थै गैं बाबा जित्तो नैं, सिर हक्के पिच्छे दित्ता सा
पर फूकी दस्सेया इक बारी ज़ुल्मे दा उसने पिता सा’
-किशन स्मैलपुरी
अगले भाग में पढ़िए पहाड़ी कुत्ते द्वारा हमारा रोमांचक स्वागत................



Thursday 4 August 2016

TREKKING Vs CYCLING | पैदल चलना बनाम साइकिल चलना

क्या ट्रैकिंग करना साइकिल चलाने से बेहतर है ?

या

साइकिल चलाना ट्रैकिंग से बेहतर है ?
सवाल तो बहुत सरल है लेकिन तुलनात्मक दृष्टि से अगर देखा जाए तो दोनों की ही अपनी अपनी खूबियां और खामियां हैं | अब मेरे जैसे के लिए, जिसको दोनों ही पसंद हैं यह सवाल धर्म संकट से कम नहीं है | जैसे किसी ने माँ से पूछ लिया हो  कि उसको अपने दोनों बेटों में से कौन सा अधिक प्रिय है ?
पैदल चलना या अंग्रेजी में बोलें तो ट्रैकिंग, की सबसे अच्छी बात तो यह होती है कि आपके पास समय बहुत होता है, आसपास के नज़ारों को देखने का, फूल पौधों को बारीकी से निहारने का, मानो आपकी सारी इन्द्रियां आपको आपके वातावरण का सम्पूर्ण स्वाद मुहैया करवाने में लगीं हों और आप सकून से सब जज़्ब किये जा रहे हों | साइकिल चलाने कि बात करें तो सबसे अच्छी बात मुझे तो यह लगती है कि आप केवल अपने शारीरिक बल पर, बहुत कम समय में बहुत ज़्यदा फासला तय कर सकते हो | समय का यही आभाव आपका ध्यान केंद्रित रखता है | आपको अपना ध्यान रास्ते पे ही रखना होता है, इधर उधर के नज़ारों कि बस झलक भर ही देख सकते हैं |
ट्रेकिंग करते समय आप कहीं पे भी रुक कर कैमरा निकाल कर फोटो ले सकतें हैं लेकिन साइकिल चलाते हुए आप तभी रुकेंगे जब कुछ ख़ास आपको आकर्षित करेगा |
साइकिल चलाते हुए आप बहुत जल्दी हालात के आदि हो जाते हो | इसका भावार्थ यह है कि शुरू के कुछ किलोमीटर ही आपको आगे के यात्रापथ का अंदाज़ा दे देंगे और आप स्वतः ही अपने आपको पथ के हिसाब से व्यवस्थित कर लोगे | खैर अगर यह बात समझ न आये तो चिंता कि बात नहीं है यह सारा प्रोसेस ऑटोमैटिक है | ट्रेकिंग में ऐसा नहीं होता, पगडण्डी किस मोड़ पे चट्टान के ऊपर से चली जाए या सीधे खड़ी चढाई में परिवर्तित हो जाए; कुछ कहा नहीं जा सकता | इसलिए ट्रेकिंग कि शुरुआत करना और साइक्लिगं शुरू करने में ट्रेकिंग का "श्री गणेश" करना ज़्यदा मुश्किल है |
अगर आप साइकिल सिर्फ ट्रेकिंग कि ट्रेनिंग के लिए चला रहे हैं तो स्टैमिना बनाने के लिए तो साइक्लिगं सही है लेकिन जिन मांसपेशियों कि जरुरत आपको पहाड़ पर चलने के लिए होगी वो अविकसित ही रह जाएँगी; ख़ास कर पहाड़ से नीचे उतरते समय जब आपको अपने आपको नीचे जाने से रोकने के लिए बल लगाना होता है | साइक्लिगं आपकी जांघों को अधिक सुद्रिड करती है और ट्रैकिंग आपकी जांघों के साथ साथ घुटने के नीचे कि पिण्डली को भी |
गाड़ी से तीन गुना धीमी साइकिल और साइक्लिगं से तीन गुना धीमी ट्रैकिंग मेरा तो यही सूत्र है जिसको ध्यान में रख कर में अपनी यात्रा प्लान करता हूँ |


ट्रेकिंग करते समय आपका सामान आपकी पीठ पे लदा रहता है और आपको अपने को उठा कर चलना होता है | यहाँ शरीर के ऊपरी और निचले हिस्से, दोनों का ही ज़ोर लगता है | साइकिल चलाते समय सामान तो पीछे कैरियर पे बँधा रहता है और ज़ोर तो सिर्फ टाँगों का ही लगता है |


खैर अब तो यह आपके ऊपर निर्भर करता है कि आपको, पीठ पे "WILDKRAFT" का RUKSAK उठाए हाथ में "CARLSBERG" कि बोतल और आँखों पे "RAY-BAN" का चश्मा लगाने वाला ट्रेकर; या कि 1.5 लाख की "TREK DOMANE" साइकिल लिए, रसद पानी कि गाड़ी के आगे चलने वाला साइक्लिस्ट; 

दोनों में से "कौन पसंद" है |

"मेरे लिए तो पैदल 5-10 किलोमीटर चलने वाला पहाड़ का बच्चा ट्रेकर है और हर कबाड़ी और कुल्फी बेचने वाला साइक्लिस्ट"|

नोट : तमाम जानकारी व्यक्तिगत अनुभव पे आधारित है और इसका कोई वैज्ञानिक विश्लेषण अभी तक नहीं किया गया है | अपनी समझ से जज़्ब करें | 

Monday 1 August 2016

नीलकण्ठ महादेव लाहौल यात्रा भाग-2

बकरियों को चराते हुए 
मख्खन, सत्तू खाते हुए
पहाड़ जिनसे निकल रही हैं जल धाराएं 
जिनकी चोटियां स्वर्ग धरा पे खींच लाएं
मेने देखा है, 
भगवान को इन्हीं नीरव नील रूप में 
भोलेनाथ धो रहे हैं, अपने चरण 

नीलकण्ठ झील में......... 

केलांग -> थोलंग -> शांशा ->जाहलमाँ -> कवांग -> कमरिंग -> चोखंग -> नैनगार (बेस कैंप ) और नैनगार से 15 Km पैदल यात्रा नीलकंठ तक; यात्रा का रूट तो रट लिया था मैंने मगर लाहौल के पीरपंजाल का मिज़ाज़ कैसा है यह नहीं जानता था |
खैर 19 जुलाई को सुबह करीब 11 बजे हम नवीन जी के घर से निकले | नीचे सड़क पर पहुँचते ही केलोंग की तरफ जाने वाली बस मिल गई | वैसे हमें केलोंग जाने की जरुरत नहीं थी क्योंकि यही बस फिर केलोंग से घूम कर वापिस आकर नैनगार जाने वाली थी | हम तो सीट लेने के चक्कर में केलोंग घूम आये | 12 बजे केलोंग पहुंचे और बस नैनगार के लिए 1:30 बजे चलने वाली थी | यह प्रतीक्षा समय केलोंग दर्शन में कैसे बीत गया कुछ पता ही नहीं चला |



बस केलोंग से 2 बजे चली | शायद हमारे सितारे अच्छे नहीं थे, बस जाहलमाँ से 2 Km पहले खराब हो गई | खैर आधे घंटे बाद दूसरी बस भी आ गई लेकिन यह बस चोखंग तक ही जाने वाली थी | चोखंग पहुँच कर एक टाटा सूमो मिल गई जो कि हमें नैनगार तक ले गई | शाम 7 बजे हम नैनगार पहुंचे |



नैनगार में एक घर में बने होटल में रुके | होटल में बस दो ही कमरे थे | एक कमरा तो पहले से ही रिज़र्व था और दूसरा कमरा सालों से बंद पड़ा था | हमारे लिए वो दूसरा कमरा खोल दिया गया|  | कमरे में बिजली नहीं, बिस्तर नहीं, पलंग भी नहीं बस खाली कमरा और हमने अपने स्लीपिंग बैग बिछा कर कमरा रिज़र्व कर लिया | होटल की एक दीवार पर किसी भक्त द्वारा चार्ट पर बनाया गया यात्रा का रास्ता लगा था, हमने गहराई से उस रास्ते का अध्यनन किया और फिर नैनगार के सौन्दर्य को निहारने निकल पड़े | 

नवीन जी ने कुछ स्थानीय लोगों से बातचीत की तो पता चला कि कल सुबह 4 बजे गांव वाले भी नीलकंठ जाने वाले हैं | हमने भी गांव वालों के साथ चलने का निर्णय किया |
गांव वाले हर साल एक साथ नीलकण्ठ जा के वहां पूजा अर्चना करके भोलेनाथ को प्रसन्न करते हैं, हमारी खुशकिस्मती थी कि हमें भी उनके साथ जाने का मौका मिला | हिमालय के एक दूरदराज़ के गांव के सांस्कृतिक एवं धार्मिक पहलू को प्रत्यक्ष देखना वाकई सौभाग्य की बात है | कुछ गांव वाले नंगे पांव चल रहे थे, ऐसा कार्य सिर्फ एकाग्र आस्थावान, अविचलित भक्त ही कर सकता है |   
20 जुलाई को सुबह 4 बजे हम अपना सारा साजो-सामान लपेट कर गांव वालों के साथ यात्रा पर निकल पड़े | अंधेरे में करीब 40 लोग पंक्तिबद्ध तरीके से संकरी पहाड़ी पगडण्डी पे चलने लगे | पंक्ति में चल रहे लोग और पंक्ति में जल रहीं टोरचें ऐसे लग रहीं थी मनो टेडी दीवार पर जुगनू पंक्ति बनाए चल रहे हों | घंटे भर बाद भोर हुई और सब कुछ हिमालय के सामने बौना हो गया |


रास्ते में 2 छोटे नाले आये जिनमें पानी बहुत कम था और हमने उनको आसानी से पार कर लिया |
करीब 7:30 बजे हम अपने पहले पड़ाव इलियास पहुंचे | इलियास में गद्दियों के डेरे पर हमने अपना भरी सामान छोड़ दिया जिसमें टेंट, स्लीपिंग बैग आदि शामिल था | अब हम तीनो के पास सिर्फ एक बैग था | इलियास में गांव वालों ने पूजा अर्चना कि और प्रसाद स्वरूप मख्खन बांटा |



इलियास तक पहुंचना कोई ज्यादा मुश्किल  न था | रास्ता लगभग समतल ही था | 
इलियास से निकलने के घंटा भर बाद हम एक नाले के किनारे पहुंचे | यह नाला सबसे चौड़ा था |

 हमने जूते उतारे और जैसे ही मैंने पानी में पैर डाला दर्द सीधा खोपड़ी में हुआ | क्या ठंडा पानी था!!! अब भी याद करता हूँ तो गर्मी आ जाती है | गांव वालों को पार जाते देख हमने भी हिम्मत कि और नाला पार किया | उस पार पहुँचने तक पैर एक दम सुन हो चुके थे और उँगलियों में सुइयां चुभ रहीं थीं | नवीन जी के पिता जी ने सच ही कहा था कि यह नाला टांगों में से हड्डी खींचता है  | थोड़ी देर बाद सब ठीक हो गया और हमने जूते पहने और यात्रा जारी रखी |


अब यात्रा का रास्ता पथरीला हो गया था | पथरीले से मेरा अभिप्राय छोटे मोटे पत्थरों से नहीं हैं बल्कि उन पत्थरों से है जिनके ऊपर चढ़ने के लिए हाथ घुटने पे रख कर जोर लगाना पड़ता है | पथरीला रास्ता पार करने के बाद आगे एक हराभरा मैदान दिखाई दिया | लोगों से पता चला कि यहाँ एक बहुत बड़ी झील हुआ करती थी और उसका किनारा टूट जाने के बाद सारा पानी बह गया और यह मैदान बन गया | उसी मैदान के किनारे गांव वालों ने हमें छोले पूरी खाने को दी | थोड़ी देर रेस्ट करने के बाद हम फिर से चलने लगे |



अब चढाई आ गई थी और यात्रा का अंतिम चरण शुरू हो गया था | ढीले पत्थर चढाई को और मुश्किल बना रहे थे | खैर इलियास में खाए मख्खन ने अपना जादू दिखाया और आगे चलते हुए लोगों के भोलेनाथ के जयकारों कि आवाज़ ने होंसला बुलंद कर दिया  | गांव वाले हमसे पहले पहुँच गए थे और जब मैं पहाड़ी के ऊपर पहुँचने वाला था तो शंख बजने लगे और जैसे ही महादेव, झील और किनारे बने मंदिर के दर्शन हुए तो ऐसा मेहससूस हुआ मनो चारों और बस भोलेनाथ ही भोलेनाथ हैं | 11 बजे तक हम महादेव के दरबार में अपनी उपस्थिति दर्ज करवा चुके थे  |



 ऊपर भोलेनाथ और नीचे नीलकंठ झील | एक दम नीला पानी जैसे कि भोलेनाथ द्वारा पिया गया ज़हर यहीं अटका पड़ा हो |


 झील में डुबकी लगाने के बाद मंदिर में माथा टेका और गांव वालों द्वारा बनाया गया हलवा प्रसाद खाया | 
कुछ देर विश्राम करने के पश्चात् हम वापिस नैनगार के लिए चल पड़े |


 हम सोच रहे थे कि चौड़े नाले को नीचे कि तरफ से पार न करके ऊपर कि तरफ से ही पार कर लिया जाए; जहाँ बड़े बड़े पत्थरों के ऊपर से कूदते हुए हम दूसरी ओर पहुँच जाएं | हमने पामाल रास्ता छोड़ दिया और सीधा नाले के मुहाने कि तरफ बढ़ गए | 2:30 घंटे जूझने पर भी रास्ता नहीं मिला पर एक सबक जरूर मिल गया, "हमेशा उसी रास्ते पे चलें जिसपे स्थानीय लोग चलतें हैं, वही सबसे छोटा और सुरक्षित रास्ता है अपना दिमाग ज्यादा न चलाएं ऊंचाई पे ऑक्सीजन की वैसे ही कमी होती है और बुद्धी थकान के मारे भ्रष्ट" | हमेशा संयम से काम लें |     
जिन नालों में सुबह बहुत कम पानी था वह सभी अब उफान पे थे | दिन चढ़ने के साथ साथ धूप तेज़ हुई, बर्फ और तेज़ी से पिघलने लगी और नालों में पानी घुटनो से भी ऊपर तक चढ़ गया | बड़ी मुश्किल से हमने सारे नाले पार किये |    
7 बजे हम नैनगार पहुंचे | स्थानीय लोगों के साथ भोजन किया और वापिस होटल में आ के सो गए | 
21 जुलाई कि सुबह एक महिंद्रा पिकअप से जाहलमाँ तक पहुंचे | ये सफर कुछ ऐसा था जैसे किसी ने हमें डब्बे में बंद करके डब्बे को जोर जोर से हिला दिया हो और हम एक दूसरे पे गिरते पड़ते संभलते उछल रहे हों | मैं और गुरूजी तो अपने-अपने स्लीपिंग बैग पे बैठ गए लेकिन नवीन जी ने फिर से अपनी सहनशीलता का उदाहरण देते हुए सीधे पिकअप के फर्श पे बैठ कर सारा रास्ता तय किया | धन्य हों लाहौल के वासी! 
जाहलमाँ से बस में तांदी और तांदी से नवीन जी के घर पहुंचे | 
अगले दिन 22 जुलाई सुबह 4:30 कि जाहलमाँ-रेकोंगपिओ बस से हम मंडी पहुंचे और उससे अगले दिन 23 जुलाई सुबह 4:30 कि मंडी-चंडीगढ़ बस से मैं सुबह करीब 11 बजे चंडीगढ़ पहुंचा |

इस प्रकार मेरी 17 जुलाई से शुरू हुई यात्रा 23 जुलाई को ख़त्म हुई | 


मंडी का ऐतिहासिक शहर देख आया मैं 
मनाली कि सुबह कि ठण्ड झेल आया मैं 
रोहतांग कि विडम्बना महसूस करके 
केलोंग कि लेडी को सुना आया मैं 
नीलकण्ठ महादेव के दर्शन करके 
घेपण राजा का राज देख आया मैं |