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Friday, 6 January 2017

चंडीगढ़ से वाघा बॉर्डर भाग-2 (गढ़शंकर से अमृतसर)

जी करता है

गर्मी बिस्तर की
समेट कर ले जाऊँ सारी
की रास्ते में दोस्त ठण्ड बहुत होगी

रात दोस्त के घर में
बिताई गढ़शंकर में
ये शहर भी है अलबेला
जन्माष्टमी के पास
लगता यहाँ राजा कंस का मेला
मामा की बात चली तो
एक यह भी रिवाज़-ए-ख़ास
बिजली गिरने के समय
मामा ना हो भांजे के पास 
क्योंकि गिरी जब शिला पे
तो वो बिजली बनी
और कंस था उसका मामा
तब से रीत यह चली

 
सुबह 5 बजे निकल पड़ा
मैं बंगा की ओर
अभी तो अँधेरा है घुप
सड़कें भी हैं चुप
कभी दिख जाती है
किसी गाडी की लौ
वैसे
दिखता नहीं
सड़क का दूसरा छोर
मुसाफिर चला है
फगवाड़ा की ओर

बंगा से फगवाड़ा
तेज़ हुआ जाड़ा
वो बिस्तर की गर्मी याद
आने लगी
लेकिन मैं भी हूँ खास
मेरा रहनुमा जो है साथ
बीरबल की खिचड़ी वो
आज पकने लगी
गुरद्वारों में है बोला
वो पाठी का राग
तेरी स्तुति का गान
सब करने लगे
मैं तो साइकिल पे हूँ चला
पापी भी हूँ बड़ा
फिर क्यों तेरे इशारे मुझे
समझ आने लगे
तू भी चालक है
खुश हूँ की
मेरे साथ है
बता देना मुझे
चुप-चाप मत बैठना
मेरी साइकिल का डण्डा
जब चुभने लगे
मैं रुक जाऊँगा
तेरे गुण गाऊँगा
रख दूंगा
माँ की चुनरी
जब डण्डा तुझे 
चुभने लगे
मेरे रहनुमा
बता क्या ये सही
मेरा फैसला
अकेला मैं आज चलने लगा
तू तो सब जनता
मैं तुझे मानता
फिर पेडल क्यों भारी
मुझे लगने लगा
जब हूँ सोचता
ज़माने को देखता
तेरी दया देखता
तेरी कायनात देखता
वो शक्ति में मैं
क्यों समाने लगा
मेरे रहनुमा
मुझे नहीं चला पता
मेरा पेडल कब हल्का
तूने कर दिया
सब है तेरी रज़ा
किसी को क्या है पता
पर तू सब जानता
दिल का राज़ पहचानता
तेरी रज़ा में मैं
राज़ी होने लगा
मेरे रहनुमा करना
सबका भला
सभी का भला


रौशनी बढ़ने लगी
और क्षितिज़ पर दिखी
पहली किरण
क्या खूब हुआ आज 
आसमान से धरती का मिलन
वाह क्या नज़ारा है
कुदरत का अदभुत
खेल सारा है
बस आप सही जगह हों सही समय
फिर जगह चाहे आम हो
नज़ारा होगा विस्मय
मैं तो यही हूँ मानता
जैसे समयानुसार है राग गया जाता
हर नज़ारे का है सही समय आता
बस आप सही जगह हों सही समय
बाकी तो सब किस्मत का खेल है
सब सही समय का मेल है


पहुँचा चलते-चलते मैं
शाहजहां के फगवाड़े में
भाई तुमने तो बाज़ार बसाया था
अब तो गांव बस गया
जो व्यापारी था कभी
अब वो भी
किसान बन गया
किल्ला (ज़मीन) बेच के 
विदेश जो चला जाता है 
वो जट्ट अब
गाना गाता है 
खैर अब तो ये सच में
फगू का बाड़ा है
जो बाहर से है मीठा
और अंदर से खारा है


जलंधर मैं पहुँचा
देश के एक सबसे
पुराने शहर में
पंजाब की पुरानी राजधानी
त्रिगर्त की राजधानी
लव की राजधानी में 
एक राक्षस पर या
हुआ जब ये जलमग्न
सतलुज ब्यास में

जलंधर नाम है इसका
ये हड़प्पा के काल का


जलंधर से ब्यास तक भाई
साइकिल वालों की शामत आई
पुल तंग हैं कोई रेलिंग नहीं
मिट्टी पड़ी है किनारे पर
साइकिल चलाने की कोई
जगह ही नहीं
किए होंगे जो पाप
तो यहाँ बुरा हाल होगा
सच्चे बन्दे का यहाँ
रहनुमा सहारा होगा
मैं तो बच निकला
बस नाम उसका लेकर
चलना संभल कर
साइकिल हाथ में लेकर
चौड़ी सड़क चाहिए
तो अभी
तंग रास्ते पे चलो
पैदल चलने की जगह
भी नहीं जहाँ
वहां भाग कर चलो
पीछे से जब ट्रक आता है
अपने आप
थका हुआ कदम भी उठ जाता है
जान तो सबको प्यारी है


दरिया-ए-ब्यास
जो आया मेरे घर से
की लौटा सिकंदर जहाँ से
वो पोरस के डर से
ब्यास आज लेकिन
कितनी उदास है
सरहदों से पंजाब
हुआ दोआब है
ब्यास के पार
बारी दोआब है

चुप-चाप बह रहा है 
आज ब्यास  है उदास
पता नहीं क्यों ? 
बंटवारे से तो सब नफ़रत करते हैं
फिर हुआ क्यों ? 

पहुँचा मैं ब्यास
हुआ रहनुमा का एहसास
ये जगह भी तो है ख़ास
यहाँ संतो का वास
ज्ञान जो समझते
सब छुपा है हुआ
यहाँ भी रखा है
समेटा हुआ
आओ तुम कभी
डेरे पर जो जाओ
कुछ आलोकिक ज्ञान
तुम भी समेट लाओ


कुछ और आगे
राइया नाम की जगह आयी
यहाँ पी सुबह की चाय
और मट्ठी खाई
चाय वाला विजय दोस्त बना लिया 
और कुछ थकान मिटाई

सूरज अब तो देखो कैसे
चमक रहा
गर्मी ये सर्द धरती में
ये भर रहा
उतार दिए मोटे कपड़े
की अब सर्दी नहीं
और याद गर्म बिस्तर की
अब आती नहीं 
आराम भी सबको प्यारा है 


यहाँ से अमृतसर 40 km दूर
दो घंटे में यह सफ़र तय किया
शहर में दाखिल होते ही
ट्रैफिक मिली भरपूर



भाई बहुत भीड़ है की
नया साल है
जूता तक उतर गया 
वो भी चार बार 
ईतना बुरा हाल है
तिल फेंकने की जगह नहीं
और तू साइकिल पे सवार है ?
गालियाँ ये बुज़ुर्गों सी हैं 
जो सब सहती हैं 
उठा ले साइकिल कंधे पर 
और चल पैदल नंगे पाँव  
टोह कर तो देख 
आखिर ये क्या कहती हैं ?
शायद 
वो अमृता, वो फैज़,
वो खुशवंत, वो मंटो 
इन्ही के एहसास 
कहती हैं

   
10 फुट की गली
और 103 वाहन हैं
कई रांझे बीच में
माजियां (भैंसे) चरावण हैं
पुरानी इन गलियों पर
नए पुराने
दोनों का बोझ है
भीड़ है बहुत की
नया साल है
अमृतसर में ट्रैफिक का