हो पेण्डे दूर पिशोराँ दे
हो पेण्डे दूर पिशोराँ दे
वाघे दे बॉर्डर ते
राह पुछदी लाहौराँ दे
(पेशावर का रास्ता बहुत दूर है और वाघा बॉर्डर पे लाहौर का रास्ता पूछना भी अब कहाँ तर्कसंगत है जब ये रास्ता अब रहा ही नहीं | )
सौदा नईं पुग्दा
हो सानु सौदा नईं पुग्दा
हो रावी तों चना पुछदा
की हाल है सतलुज दा
(हमें बँटवारा मंज़ूर नहीं ! रावी से चेनाब पूछ रहा है कि सतलुज का क्या हाल है ?)
31 दिसम्बर 2016 शाम 4 बजे
मैं एक बोर्ड़ के नीचे खड़ा हूँ, ऊपर लिखा है लाहौर 23 km | नया साल आने वाला है भीड़ बहुत है लेकिन मैं खड़ा हूँ एकाँत शून्य में | चलिए वक़्त में थोड़ा पीछे चलते हैं | सन 2012 एक गेरूएं रंग का शख़्स, लंबी दाड़ी वाला जो 25 kg का कलेजा रखता है, ट्रैकिंग में माहिर है, आग़ लिखता है; पूरा हिदुस्तानी | पैदल ही वाघा बॉर्डर पार करता है | उसकी पहली मंज़िल लाहौर है | जहाँ पहुँच कर वो पैदा होना चाहता है और देखना चाहता है वो देस जहाँ रावी बहती है, वो जगाहें जहाँ भारत की आज़ादी की तस्वीर गढ़ी गई | वो लाहौर पहुँचता है और शुरू से ही भगत सिंह को भगवान मानने वाला वो शख़्स आज उस लाहौर की जेल में जाना चाहता है जहाँ भगत सिंह जी को फाँसी हुई | तभी उसे एक ऑटोवाले की आवाज़ सुनाई देती है जो शायद जनता है कि, यह शख़्स यहाँ किस लिए खड़ा है | ऑटोवाला कहता है : "अगर भगत सिंह न होता तो कुछ भी न होता"..........
चलिए थोड़ा और पीछे चलते हैं सन 2000-01 टीवी पर DD मेट्रो लगा है | माता पिता किसी पड़ोसी के घर के टीवी वाले हाऊसफुल कमरे की अपनी धुंधली यादों को खरोंच रहे हैं और तर्क हो रहा है कि बुनियाद के आज के एपिसोड में क्या होगा ? शायद आज मास्टर हवेली राम फिर से लौट के आने वाला है !!!
मेरे लिए तो यह सब नया है, शायद इन सब चीज़ों के बारे में मैंने पहले कभी नहीं सोचा और ये एकत्रित होती रहीं मेरे अचेतन मन में | ज़ल्द ही बाढ़ आने वाली है इन्हीं सभी भावनाओं की और यह शाँति भी, तूफ़ान से पहले के सन्नाटे से कम नहीं |
ऐसे ही ख़्याल चल रहे थे मेरे दिमाग में, जल्लियाँवाले बाग से वाघा बॉर्डर तक ऐसे ही ख़्यालों में खोया हुआ चला आया था मैं, अपनी साइकिल पर और बॉर्डर पर स्पीकर में बोला जा रहा है कि अंदर स्टेडियम भर गया है | बाकी लोग बाहर स्क्रीन पर परेड़ देखें | कुछ फोटो खींच मैं भीड़ को कोसता हुआ वापिस अपनी साइकिल के पास आ गया | कुछ स्थानीय लोगों से बातचीत की | बँटवारे की कहानियाँ जल्द ही मेरे ज़ेहन पर हावी होने लगीं | मैं वहाँ से भाग जाना चाहता हूँ, अतीत से और इंसानियत की उन सभी घिनौनी हरकतों से जो शायद मुझे भी हैवान न बना दें | ऐसी बर्बरता के किस्से की रूह काँप जाए | वापिस अमृतसर कि तरफ़ चलने लगा हूँ, तेज़ जितनी तेज़ मैं चला सकता हूँ ताकी पीछे छोड़ आऊँ इस ख़्यालों की भीड़ को जो दिलोदिमाग में घर कर गई है | मैं जल्द ही थक गया और बैठ गया एक मील के पत्थर के साथ साइकिल टिका के | इस मिट्टी में बैठते ही मुझे घेर लिया है उन सभी बेकसूर रूहों ने जो बँटवारे की भेंट चढ़ गयीं |
जो चित्र में है
वो एक झूठी हँसी है
उन सभी भावनाओं
को दबाने की कोशिश
जो जाग उठीं हैं
मैं जितने लोगों से मिला
सबने यही कहा
सच
जिसे सरहदें बाँध नहीं सकतीं
इस पार या उस पार
बॉर्डर महज़ एक तार
जिसको देख कर
लोग आज भी
यकीन नहीं करते
की उनका खेत
आधा बँट चुका है
आम आदमी बॉर्डर
नहीं पहचानता
दिल कहाँ ये
खींची हुई लकीरें मानता
मेरी तरह वो भी जाना
चाहता है उस पार
या उस पार का कोई
आना चाहता हो
इस पार
उनके लिए ये
एक कंटीली तार
जिसे वो चाह कर भी
पार नहीं कर सकते
इसके घुमावदार काँटों पर
उस वहशी वक़्त
के इश्तिहार लगे हैं
जब दरिया में खून बहता था
और जब कुओं में ज़हर घोला जाता था
दरींदगी का गन्दा खेल
न जाने गया कितनी बार खेला
भूख प्यास से बेहाल
कैसे चला लोगों का टोला
एक ऐसे वतन की ओर
जहाँ उनका कोई नहीं
आखिर क्यों ? क्या मिला है ?
दर्द के सिवा
कुछ भी नहीं
उस खौफ़नाक वक़्त में
दिल सिहर उठता होगा
वो चीखें
वो चिल्लाना
शायद किसी की
इंसानियत जाग जाए
पर तब इंसान कहाँ
हैवान घूमा करते थे
कितने कटे
कितने मरे
कितनियों के बलात्कार हुए
और कितनी बार हुए
कितनी बेटियों ने ज़हर खाया
कितने बापों ने खुद अपने
हाथों से अपने बीवी बच्चे काटे
दोस्तों ने कितने दोस्त काटे
ट्रेनों ने कितनी लाशें ढोईं
और किसने उन्हें जलाया/दफनाया
कितनों की लदी घोड़ियां
कोई और ले गए
कितनो के गड्डों(बैलगाड़ी)
के मालिक कोई और हो गए
कितने सब छोड़-छाड़ कर
बस दो कपड़ों में भागे
कितनी माँओं ने अपने
बच्चे अनाथ छोड़े वो अभागे
किसने कितने कत्ल किए
कौन कहाँ से आए
और कहाँ गए
कितनो को मार गए
कितनियों को उठा ले गए
कितने गुम हो गए
कैम्पों के रजिस्टरों में
कौन जिम्मेदार है ?
ऐ रहनुमा जो भी है
उसे तू माफ़ मत करना
उसे तू माफ़ मत करना
माफ़ मत करना
पता नहीं इंसानियत का
यह नंगा नाच
कितनी बार हुआ होगा
और कहाँ-कहाँ हुआ होगा
जितनी परतें आज खोलूंगा
शायद मेरे दिल का बोझ
उतना ही हल्का होगा
मैं तो बस सोना चाहता हूँ सकून से
सकून की नींद किसे पसंद नहीं
और जबसे ये सरहद है
वो सुकून किसी को मिला ही नहीं
कितना आसाँ है ज़माने को लड़ाना
बस एक अफ़वाह फैला दो
की तेरा धर्म ख़तरे में है
और कितना भटका हुआ है
यह ज़माना
भीड़ का एक हाथ जो शमशीर खींच रहा था
उसे दूसरा म्यान में वापिस दबा भी तो सकता था
पता नहीं मैं कितनी देर यहीं बैठा रहा | जकड़ा हुआ उन रूहों के हाथों में जो ये मिट्टी फाड़ कर मुझे झकज़ोर रहीं हैं | जब उठा तो टाँगें काँप रही थीं | अब वापिस नहीं जाऊँगा अमृतसर; मेरे से नहीं सहा जाएगा | इस शहर में जो हुआ, उसका एहसास सहा नहीं जाएगा फिर कभी आऊँगा मेरे दोस्त तेरी गलियों में, जहाँ मुझे वो बँटवारे की गूँज आज भी सुनाई दी | आज तू मुझे माफ़ करदे, इतना लाचार तो मैं कभी न था......... |
पंड चुक लई किताबां दी हो
पंड चुक ली किताबाँ दी
पुतराँ दे वैर न मुके
माँ मुक गई पंज-आबाँ दी
हो माँ मुक गई पंज-आबाँ दी
हो माँ मुक गई पंज-आबाँ दी
बहुत सुंदर लिखा है सौरभ... बहुत अच्छा...!!!
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