हमरे वंश रीत ईम आई
शीश देत पर धर्म न जाई
यही कहा था छोटे साहिबज़ादों ने एक स्वर में, बुलंद आवाज़ में, भरे दरबार में जब वज़ीर खान ने उन्हें जान बचाने के लिए अपना सिख धर्म छोड़ इस्लाम कबूल करने को कहा था | 26 दिसम्बर 1705 के दिन उन्होंने भी अपने दादा जी के नक़्शे कदम पर चलते हुए धर्म त्यागने के बदले जान देना उचित समझा | शहीद साहिबज़ादे बाबा ज़ोरावर सिंह जी और बाबा फ़तेह सिंह जी तब सिर्फ़ 9 और 6 साल के थे |
गुरु अर्जनदेव जी पहले शहीद हुए
तब से ही सिंह सशस्त्र वीर हुए
खुसरो को दी शरण जहांगीर से बचाया
आते काल को देख बेटा गुरु बनाया
मुग़ल हुआ है वहशी बुरा वक्त है आया
अगर प्रेम और सहनशीलता से मैं जीत न पाया
फिर तुम कर धारण शस्त्र धर्म बचाना
देख लिया था गुरु ने होनी का होना
चले गए लाहौर जहांगीर बुलाया
और उनपर फिर झूठा मुकदम्मा चलवाया
दो लाख का दिया जुर्माना लगाया
आदि ग्रन्थ में कुछ फेर सुझाया
पर गुरु दृढ़ जहांगीर के हाथ न आया
जहांगीर गुरु सौंप चंदू को, जिस द्वेष दिखाया
हैवान को भी हैवानियत पर तरस था आया
जेठ महीने गुरु पानी की देग उबाला
और ऊपर सिर पर गर्म रेत भी डाला
गुरु सहा सब तेरा भाणा मिट्ठा जो लागा
रावी के जल में बहा, यासा था साधा
सेली टोपी छोड़ अब कलगी दस्तार जो पहनी
दरवेश बादशाह संत सिपाही चार एक के सानी
मिरी पीरी की दो तलवारें गुरु हरगोबिन्द लिए उठाए
योद्धा बड़ा पराक्रमी जिस सिंह सैनिक बनाए
बावन राजा मुक्त कराए चार युद्ध लड़ आए
तभी बंदीछोड़ पातशाह कहलाए
हरिमंदिर के सामने अकालतख़्त बनाए
जो किरतपुर में गए ज्योतिजोत समाए
गुरु तेग बहादुर के पास कश्मीरी पण्डित आए
फिर गुरु गोबिंद सिंह जो मार्ग सुझाए
बंदी बने गुरु संग तीन सिख भी आए
मुग़ल जिन्हें सिरहिन्द से दिल्ली लाए
लाख उकसावे औरंगज़ेब पर गुरु चमत्कार न दिखलाए
उस पर्म पिता के काम में दखल न पाए
दयाल दास जिस मुग़ल दो टुकड़े कराए
मती दास जिस खोलते तेल में गोते लाए
सती दास जिस लपेट रुईं में आग लगाई
गुरु रहे अडिग सब देख वाहे गुरु जपते जाए
मुग़ल को अपनी वहशत पर शर्म न आए
इस्लाम के नाम पर जुल्म जो ढाए
गुरु दे शीश परलोक जो पाए
सूबा-ऐ-सरहिंद में आज अत्याचार की प्रलय है आयी
दो बच्चों की जान का हुक्म है शाही
नवाब मलेरकोटला जिस लाया हा दा नारा
बाप का बदला बेटों से ये कैसा फ़रमान तुम्हारा
गल-सड़ गया है वज़ीर खान अंदर का मुस्लमान तुम्हारा
सूबा-ऐ-सरहिंद सब दे रहा दुहाई
किस नींव पर आज तुमने ये दीवार बनाई
अहंकार, बदला और द्वेष
आखिर इनकी भी तो कोई हद होगी भाई
ऐ वज़ीर खान तूने ये कैसी वहशत है दिखलाई
मासूम, खिलते खेलते बच्चे किसे न भाते
और दे फतवा आज तुम हो दीवारों में चिनवाते
राजमिस्त्री लगा है करने चिनवाई
धर्म की राह पर अटल हैं दोनों भाई
साहस, विश्वास और निर्भयता मुख तेज रूहानी
जपजी साहिब जपते दोनों एक जुबानी
दीवार में चिनता हुआ मिस्त्री घुटनों तक पहुँचा
ईंट तोड़-तोड़ बनाने लगा घुटनों के लिए खाँचा
बोला फिर वज़ीर खां मुँह से शब्द ये छूटे
तोड़ दे तू ये घुटना पर ईंट न टूटे
दीवार रहे सीधी चाहे छीलें या फूटें
जो न कबूले इस्लाम उसको यही सजा है भाई
सुच्चानन्द ने कहा ठीक
ये तो उसी सांप के सपोले हैं भाई
जब पहुंची दीवार फ़तेह के सिर तक
तो बोला वो सुन बड़े भाई
आया था तुझसे बाद पर
तुझसे पहले है मौत ब्याही
तुमसे अच्छी किस्मत है मैंने पायी
चला हूँ उस राह जिस गुरु दिखाया
मिलने अपने पुरखे जिस धर्म बचाया
गुरु गोबिंद पिता हम बच्चे जिनके
देख हमारे वंश के बलिदान कितने
और तू डराता हमको मौत दिखा के
अडिग हैं हम धर्म की राह पर
जो मर्जी अत्याचार तू डाह ले
चिन गई दीवार साहिबजादे भी चिन गए
9 और 6 साल के बच्चे आज बड़ा साका कर गए
जिस राह बड़े-बड़े न चल सके
उस राह हंसी ख़ुशी हैं चल गए
होनी को भी इस अत्याचार पे शर्म थी आयी
काल भी खा न सका दो पवित्र भाई
कुछ पल बाद ही थी दीवार गिराई
अभी भी जिन्दा थे दोनों
मौत हाथ भी न थी लगा पाई
वज़ीर खान को फिर भी शर्म न आयी
निर्दोष बच्चों पर फिर उसने कठोर क्रूरता दिखलाई
बैठ छाती पर दोनों का गला कटवाया
दरिंदगी का परचम सूबा सरहिंद लहराया
ऐसी शहीदी न देखी कहीं जग देख मुकाया
चारों सुत देकर दशमेश नाम कमाया
सरवंश दान कर सरवंश दानी कहलाया
धन गुरु गोबिंद सिंह आपे गुरु-चेला
जिस धर्म की खातिर क्या न लुटाया
आठ महीने, अनन्दपुर के किले को मुग़ल तथा पहाड़ी राजाओं कि संगठित फ़ौज घेर कर बैठी रही | आपसी रजामंदी पर जब गुरु गोबिंद सिंह जी सपरिवार बाकि सिंहों के साथ अनन्दपुर से निकलते हैं तो पहाड़ी राजाओं के मुग़लों के साथ मिलकर अचानक किए गए विश्वासघाती हमले के चलते सिरसा नदी को पार करते हुए परिवार के तीन हिस्से हो जाते हैं | गुरु गोबिंद सिंह जी बड़े साहिबज़ादों (बाबा अजित सिंह जी एवं बाबा जुझार सिंह जी) के साथ निहंग खां पठान के पास ठहरने के बाद 7 पोह (20 दिसम्बर 1705) की शाम तक चमकौर पहुँचते हैं | माता सिमरत कौर जी और माता साहिब कौर जी माई भागोवाल जी के साथ एक रात रोपड़ में गुज़ारने के बाद दिल्ली की तरफ चलीं जातीं हैं | गुरु माता गुजरी जी और छोटे साहिबज़ादे (बाबा ज़ोरावर सिंह जी और बाबा फ़तेह सिंह जी) सिरसा और सतलुज के किनारे-किनारे चलते हुए बाबे कुम्मे मश्क़ी की घास-फूस की झोंपड़ी में रात बिताने के बाद 8 पोह को रसोईये गँगू के घर ठहरते हैं |
गँगू को सिख इतिहास में गँगू पापी भी कहा जाता हैं क्यूँकि वो शाही ईनाम के लालच में आकर 9 पोह की सुबह मोरिंडा के कोतवाल जानी खां और मानी खां को गुरु माता और छोटे साहिबज़ादों का पता बता देता है | 10 पोह को माता गुजरी और छोटे साहिबज़ादों को सरहिंद लाया जाता है और ठन्डे बुर्ज़ में कैद कर दिया जाता है | 11 पोह को पहली पेशी होती है फिर 12 को दूसरी और 13 पोह को उन 9 और 6 साल के बच्चों को नींव में चिनवा दिए जाने का शाही फ़रमान जारी किया जाता है |
गुरुद्वारा श्री फतेहगढ़ साहिब, जहाँ छोटे साहिबज़ादों को नींव में चिनवा दिया गया | नींव में चिनवाने के बाद मुग़लों को अब भी यकीन न हुआ था कि वाकई उन्होंने गुरु गोबिंद सिंह जी के वंश का अंत कर दिया है या नहीं | दीवार गिर गई और बाद में अत्याचारी वज़ीर खां ने छोटे साहिबज़ादों का अचेत अवस्था में सिर कलम करने का आदेश सुनाया |
इन पुत्रन के कारने वार दिए सुत चार
चार मुए तो क्या हुआ जीवित कई हजार
-गुरु गोबिंद सिंह जी
अपने असंख्य पुत्रों की रक्षा हेतु
मैंने वार दिए अपने सुत चार
जिस धर्म की खातिर चार गए
उसे जीवित रखते ये हज़ार
खैर मुग़ल जिसे वंश का अंत समझ रहे थे वो कहाँ जानते थे कि गुरु गोबिंद सिंह जी तो दशमेश पिता बन चुके हैं | हर एक सिंह स्वयं गुरु गोबिंद जी का बेटा है |
गुरुद्वारा साहिब ठण्डा बुर्ज़ जहाँ माता गुजरी जी और छोटे साहिबज़ादों को कैद करके रखा गया और यहीं माता गुजरी जी ने प्राण त्याग दिए |
गुरुद्वारा श्री ज्योति स्वरूप साहिब जहाँ माता गुजरी जी तथा छोटे साहिबज़ादों का अंतिम संस्कार किया गया | यह गुरुद्वारा जिस जगह बना है वह संसार की सबसे महँगी ज़मीन है जिसे गुरु गोबिंद सिंह के अनुयायी दीवान टोडर मल ने अत्याचारी वज़ीर खां से खरीदा | जब माता गुजरी और छोटे साहिबज़ादे शहीदी पा गए तो क्रूर वज़ीर खां ने उनका संस्कार करने के लिए भी ज़मीन न दी और यह शर्त रखी की सोने के सिक्कों को खड़ा करके ज़मीन लेलो और संस्कार कर लो | तब टोडर मल जी जो गुरु गोबिंद सिंह के सच्चे अनुयायी थे, उनहोंने इस संसार की सबसे महँगी ज़मीन को बाशर्त खरीदा और माता गुज़री तथा छोटे साहिबज़ादों का अंतिम संस्कार किया | उनके गुरुधर्म पर अटल बने रहने के कारण उन्हें दीवान की उपाधि दी गई |
सरहिंद फतेहगढ़ साहिब का पुराना नाम है | बाबा फ़तेह सिंह जी के नाम पर इसका नाम फतेहगढ़ साहिब किया गया | पंजाब राज्य में फतेहगढ़ साहिब जिला है | फतेहगढ़ साहिब शहर में आने-जाने के लिए चार रास्ते हैं | चारों रास्तों पर भव्य द्वार बनाए गए हैं | इन द्वारों के नाम हैं :
1. बाबा बन्दा सिंह बहादुर द्वार (जिन्होंने मुग़लों को हरा कर फिर से सुशासन स्थापित किया)
2. दीवान टोडरमल द्वार (जिन्होंने संसार कि सबसे महंगी ज़मीन ख़रीद छोटे साहिबज़ादों और माता गुजरी जी का संस्कार किया)
3. बाबा मोती राम मेहरा द्वार (जिन्होंने ठण्डे बुर्ज़ में बंदी बनाए गए छोटे साहिबज़ादे और माता गुजरी जी को दूध पिलाने कि सेवा की और वज़ीर ख़ान ने उन्हें परिवार सहित कोहलू में पिसवा दिया)
4. नवाब शेर मुहम्मद ख़ान द्वार (जिन्होंने वज़ीर ख़ान के उकसावे में न आकर अपने भाई की मौत का बदला बच्चों से लेना उचित न समझा व उसके इस कृत्य की कड़ी निंदा की)
14 मई 1710 को वज़ीर ख़ान को उसके अत्याचारों कि कीमत चुकानी पड़ी | बन्दा सिंह बहादुर जी के नेतृत्व में सिंहो ने सरहिंद फ़तेह कर फिर से सुशासन स्थापित किया |
हर साल 26 से 28 दिसंबर, शहीदी जोड़ मेला और 12 से 14 मई, सरहिंद फ़तेह मेला लगता है | इन्हीं मेलों के आस-पास यात्रा करें तो आपको पंजाब की अच्छी झलक देखने को मिलेगी |
चण्डीगढ़ से फतेहगढ़ साहिब लगभग 50 km दूर है | जेठ (15 मई 2017 ) महीने में की गई इस साइकिल यात्रा में गर्मी का भीषण प्रकोप रहा और बाकि की कसर SH-12A के जानलेवा ट्रैफिक ने निकाल दी | अगर इन गर्मियों में कहीं यात्रा कर रहे हों तो सुबह या शाम को ही करें, गर्मी में निकलने से बचें | हमेशा पानी का घूँट भर कर रखें इससे गला नहीं सूखेगा, साँस लेने में भी कम तकलीफ़ होगी और दिमाग़ को यह विरोधाभास रहेगा की पानी की कमी नहीं है जिससे माँसपेशियों में क्रैम्प पड़ने का अंदेशा भी कम रहेगा | शरीर पूरा ढक कर चलें लू से बचाव रहेगा | भरी गर्मी में मशक्कत करने पर सबसे पहले पसीना आता है फिर पसीना आना बंद होता है फिर नाक बहती है इससे आगे आप बेहोश हो सकते हैं | जिस्म की स्तिथि का अंदाज़ा मूत्र के रंग से भी लगाया जा सकता है | साइकिल चलाते हुए बारी-बारी से एक टाँग से ज़ोर लगाएँ और दूसरी को रेस्ट करने दें इससे आप लगातार ज़्यादा दूरी तय कर सकते हैं | कृप्या हेडफोन लगा कर साइकिल न चलाएँ और हो सके तो साइकिल में रियर व्यू मिर्रर लगवा लें इससे बार-बार पीछे मुड़ कर देखना नहीं पड़ेगा व गर्दन को भी आराम रहेगा | बाकि रास्ते की जानकारी आपको गूगल मैप्स पर मिल जाएगी |
मैं चारे पुत्त क्यों वारे ज़रा विचारयो
जे चले ओ सरहन्द नूं मेरे प्यारओ
मेरे लालां दे नाल रेह के रात गुज़ारयो
कुछ अन्य यात्राएँ जो सिख इतिहास से सम्बन्ध रखतीं हैं :
bahut badiya... bahut acha likha hai
ReplyDeleteNice work
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