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Friday, 19 May 2017

फतेहगढ़ साहिब

हमरे वंश रीत ईम आई
शीश देत पर धर्म न जाई

यही कहा था छोटे साहिबज़ादों ने एक स्वर में, बुलंद आवाज़ में, भरे दरबार में जब वज़ीर खान ने उन्हें जान बचाने के लिए अपना सिख धर्म छोड़ इस्लाम कबूल करने को कहा था | 26 दिसम्बर 1705 के दिन उन्होंने भी अपने दादा जी के नक़्शे कदम पर चलते हुए धर्म त्यागने के बदले जान देना उचित समझा | शहीद साहिबज़ादे बाबा ज़ोरावर सिंह जी और बाबा फ़तेह सिंह जी तब सिर्फ़ 9 और 6 साल के थे |

गुरु अर्जनदेव जी पहले शहीद हुए
तब से ही सिंह सशस्त्र वीर हुए
खुसरो को दी शरण जहांगीर से बचाया
आते काल को देख बेटा गुरु बनाया
मुग़ल हुआ है वहशी बुरा वक्त है आया
अगर प्रेम और सहनशीलता से मैं जीत न पाया
फिर तुम कर धारण शस्त्र धर्म बचाना
देख लिया था गुरु ने होनी का होना
चले गए लाहौर जहांगीर बुलाया
और उनपर फिर झूठा मुकदम्मा चलवाया
दो लाख का दिया जुर्माना लगाया
आदि ग्रन्थ में कुछ फेर सुझाया
पर गुरु दृढ़ जहांगीर के हाथ न आया
जहांगीर गुरु सौंप चंदू को, जिस द्वेष दिखाया
हैवान को भी हैवानियत पर तरस था आया
जेठ महीने गुरु पानी की देग उबाला
और ऊपर सिर पर गर्म रेत भी डाला
गुरु सहा सब तेरा भाणा मिट्ठा जो लागा
रावी के जल में बहा, यासा था साधा

सेली टोपी छोड़ अब कलगी दस्तार जो पहनी
दरवेश बादशाह संत सिपाही चार एक के सानी
मिरी पीरी की दो तलवारें गुरु हरगोबिन्द लिए उठाए
योद्धा बड़ा पराक्रमी जिस सिंह सैनिक बनाए
बावन राजा मुक्त कराए चार युद्ध लड़ आए
तभी बंदीछोड़ पातशाह कहलाए
हरिमंदिर के सामने अकालतख़्त बनाए
जो किरतपुर में गए ज्योतिजोत समाए

गुरु तेग बहादुर के पास कश्मीरी पण्डित आए
फिर गुरु गोबिंद सिंह जो मार्ग सुझाए
बंदी बने गुरु संग तीन सिख भी आए
मुग़ल जिन्हें सिरहिन्द से दिल्ली लाए
लाख उकसावे औरंगज़ेब पर गुरु चमत्कार न दिखलाए
उस पर्म पिता के काम में दखल न पाए
दयाल दास जिस मुग़ल दो टुकड़े कराए
मती दास जिस खोलते तेल में गोते लाए
सती दास जिस लपेट रुईं में आग लगाई
गुरु रहे अडिग सब देख वाहे गुरु जपते जाए
मुग़ल को अपनी वहशत पर शर्म न आए
इस्लाम के नाम पर जुल्म जो ढाए
गुरु दे शीश परलोक जो पाए

सूबा-ऐ-सरहिंद में आज अत्याचार की प्रलय है आयी
दो बच्चों की जान का हुक्म है शाही
नवाब मलेरकोटला जिस लाया हा दा नारा
बाप का बदला बेटों से ये कैसा फ़रमान तुम्हारा
गल-सड़ गया है वज़ीर खान अंदर का मुस्लमान तुम्हारा

सूबा-ऐ-सरहिंद सब दे रहा दुहाई
किस नींव पर आज तुमने ये दीवार बनाई
अहंकार, बदला और द्वेष
आखिर इनकी भी तो कोई हद होगी भाई
ऐ वज़ीर खान तूने ये कैसी वहशत है दिखलाई
मासूम, खिलते खेलते बच्चे किसे न भाते
और दे फतवा आज तुम हो दीवारों में चिनवाते

राजमिस्त्री लगा है करने चिनवाई
धर्म की राह पर अटल हैं दोनों भाई
साहस, विश्वास और निर्भयता मुख तेज रूहानी
जपजी साहिब जपते दोनों एक जुबानी

दीवार में चिनता हुआ मिस्त्री घुटनों तक पहुँचा
ईंट तोड़-तोड़ बनाने लगा घुटनों के लिए खाँचा
बोला फिर वज़ीर खां मुँह से शब्द ये छूटे
तोड़ दे तू ये घुटना पर ईंट न टूटे
दीवार रहे सीधी चाहे छीलें या फूटें
जो न कबूले इस्लाम उसको यही सजा है भाई
सुच्चानन्द ने कहा ठीक
ये तो उसी सांप के सपोले हैं भाई

जब पहुंची दीवार फ़तेह के सिर तक
तो बोला वो सुन बड़े भाई
आया था तुझसे बाद पर
तुझसे पहले है मौत ब्याही
तुमसे अच्छी किस्मत है मैंने पायी
चला हूँ उस राह जिस गुरु दिखाया
मिलने अपने पुरखे जिस धर्म बचाया

गुरु गोबिंद पिता हम बच्चे जिनके
देख हमारे वंश के बलिदान कितने
और तू डराता हमको मौत दिखा के
अडिग हैं हम धर्म की राह पर
जो मर्जी अत्याचार तू डाह ले

चिन गई दीवार साहिबजादे भी चिन गए
9 और 6 साल के बच्चे आज बड़ा साका कर गए
जिस राह बड़े-बड़े न चल सके
उस राह हंसी ख़ुशी हैं चल गए

होनी को भी इस अत्याचार पे शर्म थी आयी
काल भी खा न सका दो पवित्र भाई
कुछ पल बाद ही थी दीवार गिराई
अभी भी जिन्दा थे दोनों
मौत हाथ भी न थी लगा पाई

वज़ीर खान को फिर भी शर्म न आयी
निर्दोष बच्चों पर फिर उसने कठोर क्रूरता दिखलाई
बैठ छाती पर दोनों का गला कटवाया
दरिंदगी का परचम सूबा सरहिंद लहराया

ऐसी शहीदी न देखी कहीं जग देख मुकाया
चारों सुत देकर दशमेश नाम कमाया
सरवंश दान कर सरवंश दानी कहलाया
धन गुरु गोबिंद सिंह आपे गुरु-चेला
जिस धर्म की खातिर क्या न लुटाया

आठ महीने, अनन्दपुर के किले को मुग़ल तथा पहाड़ी राजाओं कि संगठित फ़ौज घेर कर बैठी रही | आपसी रजामंदी पर जब गुरु गोबिंद सिंह जी सपरिवार बाकि सिंहों के साथ अनन्दपुर से निकलते हैं तो पहाड़ी राजाओं के मुग़लों के साथ मिलकर अचानक किए गए विश्वासघाती हमले के चलते सिरसा नदी को पार करते हुए परिवार के तीन हिस्से हो जाते हैं | गुरु गोबिंद सिंह जी बड़े साहिबज़ादों (बाबा अजित सिंह जी एवं बाबा जुझार सिंह जी) के साथ निहंग खां पठान के पास ठहरने के बाद 7 पोह (20 दिसम्बर 1705) की शाम तक चमकौर पहुँचते हैं | माता सिमरत कौर जी और माता साहिब कौर जी माई भागोवाल जी के साथ एक रात रोपड़ में गुज़ारने के बाद दिल्ली की तरफ चलीं जातीं हैं | गुरु माता गुजरी जी और छोटे साहिबज़ादे (बाबा ज़ोरावर सिंह जी और बाबा फ़तेह सिंह जी) सिरसा और सतलुज के किनारे-किनारे चलते हुए बाबे कुम्मे मश्क़ी की घास-फूस की झोंपड़ी में रात बिताने के बाद 8 पोह को रसोईये गँगू के घर ठहरते हैं |
गँगू को सिख इतिहास में गँगू पापी भी कहा जाता हैं क्यूँकि वो शाही ईनाम के लालच में आकर 9 पोह की सुबह मोरिंडा के कोतवाल जानी खां और मानी खां को गुरु माता और छोटे साहिबज़ादों का पता बता देता है | 10 पोह को माता गुजरी और छोटे साहिबज़ादों को सरहिंद लाया जाता है और ठन्डे बुर्ज़ में कैद कर दिया जाता है | 11 पोह को पहली पेशी होती है फिर 12 को दूसरी और 13 पोह को उन 9 और 6 साल के बच्चों को नींव में चिनवा दिए जाने का शाही फ़रमान जारी किया जाता है |


गुरुद्वारा श्री फतेहगढ़ साहिब, जहाँ छोटे साहिबज़ादों को नींव में चिनवा दिया गया | नींव में चिनवाने के बाद मुग़लों को अब भी यकीन न हुआ था कि वाकई उन्होंने गुरु गोबिंद सिंह जी के वंश का अंत कर दिया है या नहीं | दीवार गिर गई और बाद में अत्याचारी वज़ीर खां ने छोटे साहिबज़ादों का अचेत अवस्था में सिर कलम करने का आदेश सुनाया |


इन पुत्रन के कारने वार दिए सुत चार
चार मुए तो क्या हुआ जीवित कई हजार
-गुरु गोबिंद सिंह जी

अपने असंख्य पुत्रों की रक्षा हेतु
मैंने वार दिए अपने सुत चार
जिस धर्म की खातिर चार गए
उसे जीवित रखते ये हज़ार

खैर मुग़ल जिसे वंश का अंत समझ रहे थे वो कहाँ जानते थे कि गुरु गोबिंद सिंह जी तो दशमेश पिता बन चुके हैं | हर एक सिंह स्वयं गुरु गोबिंद जी का बेटा है |



गुरुद्वारा साहिब ठण्डा बुर्ज़ जहाँ माता गुजरी जी और छोटे साहिबज़ादों को कैद करके रखा गया और यहीं माता गुजरी जी ने प्राण त्याग दिए |
गुरुद्वारा श्री ज्योति स्वरूप साहिब जहाँ माता गुजरी जी तथा छोटे साहिबज़ादों का अंतिम संस्कार किया गया | यह गुरुद्वारा जिस जगह बना है वह संसार की सबसे महँगी ज़मीन है जिसे गुरु गोबिंद सिंह के अनुयायी दीवान टोडर मल ने अत्याचारी वज़ीर खां से खरीदा | जब माता गुजरी और छोटे साहिबज़ादे शहीदी पा गए तो क्रूर वज़ीर खां ने उनका संस्कार करने के लिए भी ज़मीन न दी और यह शर्त रखी की सोने के सिक्कों को खड़ा करके ज़मीन लेलो और संस्कार कर लो | तब टोडर मल जी जो गुरु गोबिंद सिंह के सच्चे अनुयायी थे, उनहोंने इस संसार की सबसे महँगी ज़मीन को बाशर्त खरीदा और माता गुज़री तथा छोटे साहिबज़ादों का अंतिम संस्कार किया | उनके गुरुधर्म पर अटल बने रहने के कारण उन्हें दीवान की उपाधि दी गई |


सरहिंद फतेहगढ़ साहिब का पुराना नाम है | बाबा फ़तेह सिंह जी के नाम पर इसका नाम फतेहगढ़ साहिब किया गया | पंजाब राज्य में फतेहगढ़ साहिब जिला है | फतेहगढ़ साहिब शहर में आने-जाने के लिए चार रास्ते हैं | चारों रास्तों पर भव्य द्वार बनाए गए हैं | इन द्वारों के नाम हैं :
1. बाबा बन्दा सिंह बहादुर द्वार (जिन्होंने मुग़लों को हरा कर फिर से सुशासन स्थापित किया)
2. दीवान टोडरमल द्वार (जिन्होंने संसार कि सबसे महंगी ज़मीन ख़रीद छोटे साहिबज़ादों और माता गुजरी जी का संस्कार किया)
3. बाबा मोती राम मेहरा द्वार (जिन्होंने ठण्डे बुर्ज़ में बंदी बनाए गए छोटे साहिबज़ादे और माता गुजरी जी को दूध पिलाने कि सेवा की और वज़ीर ख़ान ने उन्हें परिवार सहित कोहलू में पिसवा दिया)
4. नवाब शेर मुहम्मद ख़ान द्वार (जिन्होंने वज़ीर ख़ान के उकसावे में न आकर अपने भाई की मौत का बदला बच्चों से लेना उचित न समझा व उसके इस कृत्य की कड़ी निंदा की)


14 मई 1710 को वज़ीर ख़ान को उसके अत्याचारों कि कीमत चुकानी पड़ी | बन्दा सिंह बहादुर जी के नेतृत्व में सिंहो ने सरहिंद फ़तेह कर फिर से सुशासन स्थापित किया | 

हर साल 26 से 28 दिसंबर, शहीदी जोड़ मेला और 12 से 14 मई, सरहिंद फ़तेह मेला लगता है | इन्हीं मेलों के आस-पास यात्रा करें तो आपको पंजाब की अच्छी झलक देखने को मिलेगी |

चण्डीगढ़ से फतेहगढ़ साहिब लगभग 50 km दूर है | जेठ (15 मई 2017 ) महीने में की गई इस साइकिल यात्रा में गर्मी का भीषण प्रकोप रहा और बाकि की कसर SH-12A के जानलेवा ट्रैफिक ने निकाल दी | अगर इन गर्मियों में कहीं यात्रा कर रहे हों तो सुबह या शाम को ही करें, गर्मी में निकलने से बचें | हमेशा पानी का घूँट भर कर रखें इससे गला नहीं सूखेगा, साँस लेने में भी कम तकलीफ़ होगी और दिमाग़ को यह विरोधाभास रहेगा की पानी की कमी नहीं है जिससे माँसपेशियों में क्रैम्प पड़ने का अंदेशा भी कम रहेगा | शरीर पूरा ढक कर चलें लू से बचाव रहेगा | भरी गर्मी में मशक्कत करने पर सबसे  पहले पसीना आता है फिर पसीना आना बंद होता है फिर नाक बहती है इससे आगे आप बेहोश हो सकते हैं | जिस्म की स्तिथि का अंदाज़ा मूत्र के रंग से भी लगाया जा सकता है | साइकिल चलाते हुए बारी-बारी से एक टाँग से ज़ोर लगाएँ और दूसरी को रेस्ट करने दें इससे आप लगातार ज़्यादा दूरी तय कर सकते हैं | कृप्या हेडफोन लगा कर साइकिल न चलाएँ और हो सके तो साइकिल में रियर व्यू मिर्रर लगवा लें इससे बार-बार पीछे मुड़ कर देखना नहीं पड़ेगा व गर्दन को भी आराम रहेगा | बाकि रास्ते की जानकारी आपको गूगल मैप्स पर मिल जाएगी |



मैं चारे पुत्त क्यों वारे ज़रा विचारयो
जे चले ओ सरहन्द नूं मेरे प्यारओ
मेरे लालां दे नाल रेह के रात गुज़ारयो

कुछ अन्य यात्राएँ जो सिख इतिहास से सम्बन्ध रखतीं हैं :

चमकौर साहिब यात्रा

Friday, 3 March 2017

बाबा बन्दा सिंह बहादुर की याद में, मैदान-ए-जंग चपड़ चिड़ि, मोहाली, पंजाब


मैं तो बहुत व्यस्त हूँ
सांसारिक क्रियाकलापों में मस्त हूँ 
और आप तो हर जगह
फिर काहे आपको ढूंढने
निकलूँ हर जगह
बहुत मज़ा मुझको है आ रहा 
फिर भी जाने क्यों 
मन तेरी है सुन पा रहा
थोड़ी देर के लिए सही
जैसे पहले ग़ुम थे
वैसे ही हो जाओ 
ऐ मन माया में लिप्त हो जाओ 
लेकिन हक़ असल की ना 
जोत जगाओ
ये जोत शुद्ध घी ज्वाला 
जो सब कुछ खा जाए
पर्दा सच झूठ का 
साफ़ नज़र आए

हे! मेरे रहनुमा 
मैं क्या करूँ
तू ही सच्ची राह दिखा 
जिस पे चलूँ
मैं क्या करूँ

कहाँ जाऊँ
हर जगह ही तुम हो
जब थक जाता हूँ 
तब दिखते तुम हो
अच्छा तुम ही बताओ
कहाँ क्या है 
राह कौन सी की 
सीधा तुम्हें पाऊँ
घुमंतू इस मन से 
पीछा छुड़ाऊँ
आखिर कहाँ जाऊँ

हाँजी भाईसाहब
महीना होने को आया
कहीं गए नहीं

मेरे रहनुमा 
तुम नहीं कहाँ
खैर 
तुम तो हो हर जगह
जीवन के सम्पूर्ण अनुभव
और तुम्हारा अनुभव 
तौला गया सोना कहाँ 
धूल से भला
मेरे रहनुमा 
तू ही कोई उपाए सुझा    

मेरे रहनुमा
तेरे सवाल का जवाब तो मेरे पास नहीं
ख़राब साइकिल का पहला बहाना ही सही
या छुपा लूँ मैं आलस अपना व्यस्तता का दूसरा सुना
या शारीरिक कमजोरी का तीसरा बता
दवाई की ख़ाली डिब्बी दिखा
मेरे रहनुमा
अब तू ही कोई राह दिखा

हाँ भाई
कितना आसान है
हार मान लेना
बहाना बना लेना
दोष दूसरे पे डाल देना
जिम्मेदारी से मुँह मोड़ लेना

अच्छा रुक
एक कहानी सुनाता हूँ
तुझे सोये से जगाता हूँ


ध्यान से सुनना:

सिखों के इतिहास की
बता रहा हूँ एक वीर कहानी
जब मुग़लों ने अत्याचार कर
धर्म की दुर्दशा थी कर डाली
तब गुरु गोबिंद सिंह ने
दक्षिण की तरफ़ डेरा डाला
वैरागी एक ध्यान में आया बोलाबाला
गोदावरी किनारे सोच विचारी
दिखा एक मनुष्य साहसी अहँकारी
जो था अंदर से बलशाली
लेकिन सच्चे फूल से अनभिज्ञ 
था वो माली
सभी सूरतों ने एक दूसरे की
सूरत देखी
गुरु ने शिष्य की
मूरत देखी  
धर्म की रक्षा कर जिसने
अमर अपना नाम किया
गुरु वचन का निर्वाह किया

पैदल चलता हुआ 
सोच रहा हूँ
इतिहास की परतें 
खोल रहा हूँ
जब गुरु गोबिंद सिंह 
गए दक्षिण
शायद जानते थे 
अगला बन्दा मिलेगा वहीँ
शायद जानते थे 
जब मिला वो बन्दा
तो दोनों धन्य थे हुए
एक दूसरे की इच्छ्या के 
दोनों आदि शक्ति के 
पूरक थे हुए
और वो बन्दा भी क्या 
बन्दा निकला
गीदड़ों में छुपा
वो सिंह निकला

27  अकतूबर सन 1670

पुँछ की राजौरी में
किसान राम देव के घर में
लछमण देव ने जन्म लिया
लड़कपन से ही जिसने
शिकार के खेल को साध लिया

एक बार उसने एक हिरणी का शिकार था किया
प्राण त्यागते ही जिसने बच्चों को जन्म था दिया
आघात इस बात का उसके ह्रदय पर था हुआ
पश्चाताप में वह संसार से विरक्त था हुआ
वैरागी जानकी प्रसाद का शिष्य था बना
तभी लछमण देव से माधो दास नाम था हुआ

साधु राम दास से घुम्मकड़ी सीखी
योगी औघड़ नाथ से कला योग
गोदावरी किनारे चलते-चलते
जा बसा नंदेड़

सन 1708

मिला जब वो गुरु गोबिंद से
अज्ञान दूर था हुआ
कर्मयोगी को कर्म का
आदेश था हुआ
बना वो बन्दा गुरु का
पर गुरु ने बन्दा सिंह था किया

पाँच तीर नगाड़ा, निशान था दिया
और बन्दा सिंह से
बन्दा सिंह बहादुर बना था दिया
आज्ञा पा गुरु की
पंजाब को चला

कुछ ही समय बाद उसे
गुरु के ज्योतिजोत सामने का
समाचार उसे मिला
सिरहिंद के पठान के
विश्वासघात का पता चला

बन्दा सिंह बहादुर बना
मज़लूमों की सहायता करने को
अन्याय से लड़ने को
धर्म पर चलने को
गुरु के उद्देश्य का
उनके बाद भी पालन किया
और उनके जाने की ख़बर ने
इरादों को और मज़बूत बना दिया

पहले जीता सोनीपत
फिर बांटा समाना कैथल का खज़ाना
नज़र तो बन्दा सिंह बहादुर की सिरहिंद पर थी
पर अभी सेना को और शसक्त जो था बनाना
ऐसा चला सिंहो का विजय अभियान
जीत लिए घुरम थसका शाहबाद और मुस्तफाबाद
सिरहिंद न था अब बहुत दूर
कब्ज़े में लिए कपूरी सढ़ौरा और बनूर

बन्दा सिंह बहादुर की सेना को और शसक्त करने को
माझे और दोआबे के सिंह भी आये धर्म के लिए लड़ने को
खरड़ और बनूर के बीच सिंहो का मेल था हुआ
सिंहासन वज़ीर ख़ान का डांवांडोल था हुआ


चपड़ चिड़ि की लड़ाई :

वज़ीर खान थर-थर काँप था गया
तभी कूटनीति का उसने सहारा था लिया
सुचानंद के भतीजे को
बंदा को कमज़ोर करने को
हज़ार सिपाही देकर
बंदा सिंह की तरफ़ भेज था दिया
जिसने बगावत का झूठा ढोंग
बखूबी था किया

वज़ीर खान सिरहिंद का 
था बड़ा अहंकारी 
थी छल कपट से उसने हमेशा 
बाजी मारी
इस बार भी उसने 
रावल पिंडी संदेसा भिजवाया 
कहा मुस्लिम धर्म पर है 
संकट आया
तुम आओ फ़ौज लेकर 
काफ़िर को हराओ
अल्लाह का तुम 
हुक्म बजाओ
देखो कब से ये जंतर चलता आया 
धर्म  का सहारा ले इंसान लड़ाया 
खैर
अब तो समस्त भारत है 
इसने मार गिराया 
वज़ीर खान का अस्त्र
सियासत ने अपनाया

पर बन्दा सिंह बहादुर
मुग़ल फ़ितरत से कहाँ महरूम था
उसे अपने गुरुओं के साथ हुए विश्वासघातों का 
पूरा इतिहास मालूम था
हम सब जागें तो बन्दे का संकल्प पूरा हो 
धर्म से उठें तो वतन पूरा हो 

उस तरफ़ थे हाथी घोड़े तोपें
जो बड़ी तादात में इकट्ठी हुईं
और बंदूकों की गिनती 
अनगिणत हुई 
इस तरफ़ टूटे भाले
और तलवारें लड़-लड़ के 
धारहीन थीं हुईं

लड़ाई शुरू हुई
चपड़ चिड़ि के मैदानों में
मुग़ल सेना आश्वस्त थी बहुत
वज़ीर खान को विश्वास था बहुत
अपनी कूटनीति चालों में
जब भागा वो गद्दार
सिंह भी थे कुछ घबराए
लेकिन फिर बन्दा सिंह बहादुर
मैदान-ए-जंग में खुद चले आए


होंसला बुलंद हुआ सिंहों का
वाहेगुरु जी की फ़तेह के जयकारे लगाए

होंसले, विश्वास से भरपूर सिंहों ने फिर
बड़ी बहादुरी से लड़ाई लड़ी
मुग़ल सेना की बुरी हालात थी हुई
देख कर ये वज़ीर खान था घबराया
और बर्छे से बाज़ सिंह को मारने था आया
सिंह ने उसी का बर्छा उससे छीना उसी से
उसके घोड़े को मार गिराया
फिर चलाया तीर  वज़ीर खान ने
बाज़ सिंह के बाजु को निशाना बनाया
और तलवार निकाल अपनी
निहत्थे का सामना करने को आया
फ़तेह सिंह ने देखा ये दृश्य
वो पास ही था खड़ा
बाज़ सिंह की रक्षा करने को आगे बढ़ा
वार करने को आते वज़ीर खान के
सारे होंसले पस्त कर दिए
एक ही वार में उसके
दो टुकड़े कर दिए
वज़ीर खान के मरने की देर थी
मुग़ल सेना बिना नायक के
भटकते लोगों का ढ़ेर थी
और दहाड़ते सिंहों के आगे
जैसे लाचार भेड़ थी

जीता सिरहिंद बन्दा सिंह बहादुर ने
जहाँ गुरु गोबिंद के बच्चे चिनवा थे दिए
किया फ़तेह वो बुर्ज
जहाँ माता गुजरी ने प्राण
त्याग थे दिए
आज सूबा-ए-सिरहिंद पर
धर्म के परचम लहरा थे दिए



हाँ भाई
कहो कैसी रही
जी बहुत खूब कही
अभी चलता हूँ
साइकिल न सही
टाँगें तो हैं
घमण्ड न सही
हिम्मत तो है
और
चलने वाले कब
सवारी के मोहताज हैं हुए
किनारे बैठ कर कब
दरिया पार हैं हुए
और जो दम रखते हैं
वो अपने दम पर चलते हैं
मोटर गाड़ी साइकिल के कब
ग़ुलाम बनते हैं
और जब चलता हूँ खुद से बतियाने को
अपने अंदर की राह पाने को
उसी की तलाश में
फिर ये वक्त की पाबन्दी कैसी
समय का आडम्बर कैसा
और किस मुँह से कहूँ 
मैं व्यस्त हूँ
तुम्हारा दिया काम तो मुझसे किया ना गया

जी
मैं पैदल ही चला जाऊँगा
अब न कोई बहाना बनाऊँगा
चण्डीगढ़ सेक्टर 12 से
चपड़ चिड़ि का मैदान
कहाँ ज्यादा दूर है
और एक तरफ़ का 15 Km
आना-जाना 30 है
सीधा नाक की सीध है 
अब तो पैदल ही जाऊँगा
तभी बन्दे की 
वीरता पहचान पाऊँगा
इस यात्रा का क्या लिखूँ
क्या कहानी कहूँ 
और वृतांत लिख भी दूँ तो 
क्या मेरा औचित्य पूरा होगा 
बन्दा सिंह बहादुर के आगे 
मेरी कहानी का क्या महत्व होगा 
और क्यों कोई पढ़ना चाहेगा मुझे
जो मैंने वो लिखा ही नहीं 
जो सच इतिहासकारों ने मिटा दिया 
जो है मेरे दिल की आवाज़ 
उसे दबा कर रास्ते का 
वर्णण कर भी दूँ तो
फिर तो अपने मन की आवाज़
को मैंने दबा दिया
लिख दिया आज जो आया ज़ेहन में 
कलम के सब हिज़ाबों को मिटा दिया 
और पैदल 30 Km चला भी गया 
तो कौनसा मुकाम पा लिया
खैर
बीहड़ों में पैदल चलना फिर आसान है
क्योंकि वहां और कोई चारा नहीं
मुश्किल तो शहर है
शरीर चल है रहा 
मन है खड़ा
हर मोड़ पे ऑटोवाला पूछता है
कहाँ जाओगे
और मैं रहा स्तब्ध खड़ा

ओ बन्दे आ जाओ फिर से इस जहान में  
वज़ीर खान बन नशा हुक्म चला रहा 
और आज जनता आदि है हुई 
सुच्चानन्द ठहाका लगा रहा 
उसका भतीजा धर्म का चोगा पहना
कितनों के घर उजाड़ रहा

मेरे रहनुमा 
तेरी रज़ा में राज़ी मैं हुआ
क्या-क्या नहीं तूने मुझे दिखा दिया
धार्मिक तो वे थे जो इंसानियत के लिए सर कटा गए
आज फिर किसी ने धर्म के नाम पर दंगा करवा दिया






Thursday, 13 October 2016

श्री चमकौर साहिब यात्रा भाग-2

हमरी करो हाथ दे रक्षा  | |
पूर्ण होए चित की इच्छा  | |
तव चरणं मन रहे हमारा  | |
अपना जान करो प्रतिपारा  | |
हमरे दुष्ट सभे तुम घावो  | |
आप हाथ दे मोहे बचाओ  | |
सुखी बसे मोरो परिवारा  | |
सेवक सिख सभई करतारा  | |
(बिनती चौपाई, श्री गुरु गोबिंद सिंह )


सन 1705
गुरु गोबिंद सिंह जी ने खालसा जी (पाँच प्यारों)  से पूछा औरंगज़ेब का अंत कैसे किया जाए ? तीर से या कलम से ?
खालसा जी ने गुरुगोबिंद सिंह जी से कहा :
गुरुदेव हमने बुराई के खिलाफ अपने शस्त्रों से बहुत लड़ाईयाँ लड़ीं हैं, लेकिन इस लड़ाई का अंत आप कलम से करें |

चूँ कार अज़ हमह हीलत-ए दर गुज़शत
हलाल असत बुरदन ब-शमशीर दसत
(ज़फरनामा)
(जब किसी मुश्किल को हल करने की तमाम विधियां बिफल हो जाएं फिर हाथ में तलवार उठाना सही है)

फिर गुरुगोबिंद सिंह जी ने ज़फरनामा (विजय पत्र) लिखा | ज़फरनामा औरंगजेब को गुरु गोबिंद सिंह जी द्वारा फारसी में लिखा गया एक पत्र है | इस पत्र में परमेश्वर की महिमा से लेकर मुग़लों के विश्वासघातों, चमकौर की लड़ाई में मुग़लों की करारी हार और औरंगज़ेब को मिलने आने का काव्यात्मक अंदाज़ में ज़िक्र है | कहते हैं जब सिंघों ने यह पत्र औरंगज़ेब को बाबुलंद पढ़ के सुनाया तो वह कांम्प उठा और उसके बाद एक साल के भीतर ही दुनिया से रुख़सत हो गया |

बस्स एक हिन्द में तीर्थ है यातरा के लिये ।
कटाए बाप ने बच्चे जहां ख़ुदा के लिये ।
( गंज-ए-शहीदां- 117, अल्लाह यार ख़ां जोगी )

श्री चमकौर साहिब केवल एक गुरुद्वारा नहीं है | इस पवित्र स्थान पर मुख्यतः छह गुरुद्वारे हैं और इस पूरे क्षेत्र को श्री चमकौर साहिब के नाम से संबोधित किया जाता है | छह मुख्य गुरुद्वारे हैं: 
गुरुद्वारा डमडमा साहिब 
गुरुद्वारा गढ़ी साहिब 
गुरुद्वारा कतलगढ़ साहिब
गुरुद्वारा रंजीत गढ़ साहिब 
गुरुद्वारा शहीद बुर्ज भाई जीवन सिंह 
गुरुद्वारा ताड़ी साहिब  


गुरुद्वारा श्री कतलगढ़ साहिब देखने के बाद मैं गुरुद्वारा श्री गढ़ी साहिब देखने पहुँचा, जिनका नाम कच्चे किले (कच्ची गढ़ी) पर रखा गया है | बहुत ही भव्य गुरुद्वारा है | यहाँ से आप चमकौर साहिब के आस-पास के पूरे इलाके को देख सकते हैं | इसी स्थान पर वह कच्ची गढ़ी (किला) था जिसपे चढ़ कर गुरु गोबिंद सिंह जी लड़ाई देख रहे थे और मुग़ल सेना पर तीरों की बरसात कर रहे थे | उनके तीर कई हज़ार मुग़लों को चीरते हुए आर-पार हो गए |


लगभग 2 बजे मैंने अपनी दोनों बोतलों में पानी भरा और वापिस चलने को तैयार हो गया | श्री चमकौर साहिब की पवित्र धरती को प्रणाम कर मैं साइकिल पर सवार हो गया | वापसी का सफ़र मुश्किल होने वाला है यह मैं जानता था |
हे प्रभु! आज क्या खूब पाठ सिखाया तुमने
भर दी है नवीन ऊर्जा मुझमें
थकान का एहसास है
लेकिन मैं उसे महसूस नहीं कर रहा
धीरे-धीरे ही सही
मंज़िल की ओर बढ़ रहा
धूप की तपिश भी आज मीठी हो गई
साहस, शक्ति और वीरता से जो भेंट हो गई
है धर्म, बलिदान, त्याग और पूर्ण समर्पण
और ऐसे गुरुओं की महिमा भी
जिन्होंने किया सम्पूर्ण वंश अर्पण
आज पंजाब की जवानी फिर नशे में कैसे खो गई ?
धूप की तपिश भी आज मीठी हो गई
साहस, शक्ति और वीरता से जो भेंट हो गई.....


श्री चमकौर साहिब से रोपड़ पहुँचा | सिख इतिहास की वीरगाथाओं को समझने में इतना मशगूल हो गया था कि गुरुद्वारे में लंगर छकना भी भूल गया | अब ज़ोरों की भूख लग रही थी | रोपड़ से कुराली की तरफ बढ़ते हुए एक केले के ठेले पर रुका | आधा दर्जन केले खाने के बाद भूख शांत हुई |


कुराली पहुँचते-पहुँचते पसीने में तर हो चुका था | कुराली से चण्डीगढ़ (सिसवां रोड़) की तरफ़ हो लिया | कुछ दूर चलने के बाद थकान और धूप से बेहाल मैं, ये पंक्तियाँ गुनगुना रहा था :
सूरज की गर्मी से जलते हुए तन को मिल जाए तरुवर की छाया
ऐसा ही सुख मेरे मन को मिला है मैं जब से शरण तेरी आया
मेरे राम !
खैर इस रास्ते पे छाया नहीं है | बहुत दूर तक छाया ढूंढता रहा नहीं मिली | आखिर में एक बंद पड़ी पानी की मोटर दिखी वहां एक आम का पेड़ था जिसकी छाया देख मैं खुद को रोक नहीं पाया | साइकिल टिका के मैं तो ज़मीन पे ही लेट गया | करीब आधा घण्टा सोने के बाद होश आया | सारा पानी पी लेने के बाद फिर से चलने लगा, चण्डीगढ़ की ओर |


ये जो न्यू चण्डीगढ़ (कुराली चण्डीगढ़ रोड़ और मुल्लांपुर के आस-पास) वाला इलाका है, ये जैसे दुबई की नक़ल बनाई गई है | सबसे पहले वो दुबई वाली बिल्डिंग की नक़ल आपको दूर से ही दिख जाएगी | फिर चकाचक चौड़ी सड़कें, फ्लाईओवर और डिज़ाइनर स्ट्रीट लाइट्स |



हद तो तब हो जाती है जब सड़क के किनारे लगाए गए खजूर के पेड़ दिखाई देते हैं | अरे भाईसाहब हमारी नहीं तो संत कबीर जी की ही सुन लेते :
बड़ा हुआ तो क्या हुआ, जैसे पेड़ खजूर |
पंथी को छाया नहीं, फल लागे अति दूर ||


लगभग 4:30 बजे मैं हॉस्टल पहुँचा | आज का दिन बहुत ज्ञानवर्धक रहा | सिख वीरता को जानने के बाद मैं सोचता हूँ कि कैसे पंजाब नशे में डूब गया ?
जहां धर्म, बुद्धि, वीरता और शारीरिक बल की इतनी ऐतिहासिक मिसालें हैं वहां के युवा कैसे नशे कि ओर चले गए !
शायद यही सवाल इन बाबा जी के ज़ेहन में भी चल रहा है.........


यात्रा विवरण
दूरी
चण्डीगढ़ (पंजाब इंजीनियरिंग कॉलेज, सेक्टर-12) से कुराली- 26 km
कुराली से रोपड़- 16 km
रोपड़ से चमकौर साहिब- 14 km
कुल दूरी = 56 km
आना-जाना = 112 km

कुल यात्रा खर्च

आधा दर्जन केले - 30 रुपए

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अगर आप भाग्यशाली हों तो श्री चमकौर साहिब में आपको पारंपरिक साज़ों पर चमकौर की लड़ाई का वर्णन भी सुनने को मिल सकता है :

ओ सिंह किले चों निकलया, फिर बड़या विच मैदान
ओह्दी चण्डी लिशकां मारदी, मारदी, ज्यों बिजली विच असमान
पये वैरी थर-थर कम्बदे, पज्जे पेडां वांगू जाण
ज्यों शेर पुख्खे विच जंगली, जंगली, पये जिदी जान बछाण

ओ वार चलावे तेग दा, ज्यों तारा टूटे असमान
ओहना वाड़ी पायी वेरीयाँ, वेरीयाँ, ज्यों मक्की कट्टे किरसान
पइयाँ मुग़लां ताईं पजदीयाँ, जुद्ध मच्या सी घमसाण
फिर कलगीधर दे लाड़ले, लाड़ले, वद-वद के तीर चलाण

कई नेज़े, बरछे चलदे, सिंह लड़दे ला के तान
जीयोंदे सिंह कदे न हारदे, हारदे, चाहे निकल जाण प्राण
फिर कलगीधर जी वेख के, थावे-थावे तीर चलाण
जो लंघ के कई हज़ार चों, हज़ार चों, सुक्के आर-पार हो जाण

सिंह अंत शहीदी पा गया, जिस छडया नई मैदान
पंज सिंह जो उसदे नाल सी, नाल सी, हो गए हस-हस के कुर्बान
फिर छड़ जयकारा गुरां ने, कम्बण ला ता सी असमान
सुन छोटा पुत्तर आ गया, आ गया, यूँ करदा आप बयान

मैं वेख शहीदी वीर दी, हूँण करनी नई है काण
मैनु आज्ञा बख्शो गुरु जी, पिता जी, चमकावां सीखी शान
ऐ कौतक दसवें गुरां दा, ज़रा तक्को नाल ध्यान
जो पुत धर्म तों वारदे, उच्ची करण धर्म दी शान

रेह्न्दे पंथ वसे मैं उजडाँ, जावां लीरो-लीर कराण
वारा जागो वाले गा के गुरु संगतां तांहि सुणांण

रेह्न्दे पंथ वसे मैं उजडाँ, जावां लीरो-लीर कराण
वारा जागो वाले गा के गुरु संगतां तांहि सुणांण

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Monday, 10 October 2016

चण्डीगढ़ से चमकौर साहिब यात्रा भाग-1

कि ओ बेनगूँ असत ओ बे चगूँ
कि ओ रहनुमा असत ओ रहनमूँ

(वो निराकार है
वो रहनुमा है जो रास्ता दिखाता है; ज़फरनामा)

वही जो विद्यमान है सब में
वही जो जीवन देने वाला है
है वही प्राण हरने वाला भी
वही साक्षी है सत्य का
है असत्य रचने वाला भी
वही ले चलता है दुनिया दिखाने
है वो थकाने वाला भी
वही दिखाता है राह
है वही भटकाने वाला भी
मैंने रखा भरोसा अपने रहनुमा कि हर बात मानी
है आज ले चला मुझे वो बाहर से अंदर की ओर
क्या पता दिख जाए मुझे वो पर्म सत्य की ठौर........

देह शिवा वर मोहे ईहे, शुभ कर्मन ते कभुं न टरूं
न डरौं अरि सौं जब जाय लड़ौं, निश्चय कर अपनी जीत करौं,
अरु सिख हों आपने ही मन कौ इह लालच हउ गुन तउ उचरों,
जब आव की अउध निदान बनै अति ही रन मै तब जूझ मरों

(हे भगवान मुझे यही वर दो की मैं कभी शुभ काम करने से मुँह न फेरूँ
मैं शत्रु का सामना करने से कभी न डरूँ और निश्चय करके अपनी जीत करूँ
तुम्हारी महिमा ही मेरा मार्गदर्शन करे और उसका गुणगान ही मेरा पर्म उद्देश्य हो
जब मरने का समय आये तो मैं रणभूमि में साहस से लड़ता हुआ वीरगति प्राप्त करूँ)
(चण्डी चरित्र उक्ति विलास-श्लोक 231, गुरुगोबिन्द सिंह, दशम ग्रन्थ)


दिसम्बर 1704 चमकौर में एक कच्चे किले में गुरु गोबिंद सिंह, पंज (पाँच) प्यारे, दो साहिबजादे (बाबा अजीत सिंह जी , साहिबजादे जुझार सिंह जी और 40 सिख  फैसला कर चुके हैं कि अब हम मुग़लों से लड़ाई करेंगे | पिछले कल जो लोग कुरान और गीता की कसमें खा कर भी विश्वासघात कर गए उन पर अब भरोसा भी कैसे करते ?
कल रात बर्फीली ठंडी सरसा नदी के किनारे मुग़लों (वज़ीर खान) तथा पहाड़ी राजाओं ने मिल के हमला किया जो पहले ही यह संधि कर चुके थे कि आनंदपुर साहिब से पलायन करते सिखों को कोई हानि नहीं पहुंचाएंगे | सरसा नदी को पार करते हुए, गुरु गोबिंद सिंह जी अपनी माता और दोनों छोटे साहिबजादों से बिछड़ गए जो बाद में एक और विश्वासघात के बाद फतेहगढ़ में मुग़लों द्वारा बंदी बना लिए गए | उसी नदी में गुरु गोबिंद सिंह जी द्वारा रचित बहुत सारा साहित्य भी बह गया |

अरे भाई साहब अभी मिन्नी मैराथन दौड़ के आये हो अभी साइकिल उठा कहाँ चल दिए ?
जी चमकौर साहिब जा रहा हूँ, फतेहगढ़ साहिब देखने के बाद बड़ा मन था वहां जाने का, आज सुबह दौड़ के थक तो चुका हूँ सोचता हूँ अच्छी तरह थक लूँ फिर एक साथ विश्राम करूँगा |
8 अक्टूबर सुबह करीब 9:30 बज रहे थे | सवेरे 5 बजे ही उठ गया था फिर 6 बजे मैराथन दौड़ने चला गया | 8 बजे वापिस आ के नाश्ता किया और वहीँ खाते-खाते चमकौर साहिब जाने का इरादा बना लिया | अब साइकिल पे सवार हो चुका हूँ और सोच रहा हूँ उस दिसम्बर 1704 की सर्द रात के बारे में जिसमें गुरु गोबिंद सिंह जी ने सरसा नदी पार की थी  क्या वे लोग भी थके थे नदी को पार करते हुए ?

चमकौर के मिट्टी के किले के बाहर मुग़ल फ़ौज घेरा बंदी कर चुकी है | एक तरफ 48 हैं और दूसरी तरफ 10 लाख की फ़ौज ! 

किले के अंदर से गुरु की आज्ञा पा पाँच-पाँच के जत्थे में सिंह मुग़लों से लोहा लेने लगे | 

ज़ज़्बा-ए-सिंह देखते ही बनता होगा
वो गुरु का सिख जब शस्त्र लिए किले से निकलता होगा 
खैर जान की मुग़ल तब मांगता होगा 
जब एक सिंह एक वार से दो 
और दो वार से चार
टुकड़े जो उनके करता होगा  
एक सिंह जब सवा लाख पे भारी पड़ता होगा
वो दृश्य भी क्या देखते ही बनता होगा
वो दृश्य भी क्या देखते ही बनता होगा 

आकाश सत श्री अकाल के जैकारों से फट पड़ता होगा
एक सिंह वीरगति को जब प्राप्त करता होगा 
एक के जाते ही दूसरा सिंह जब मैदान-ए-जंग में उतरता होगा 
तब कलेजा भय से मुग़लों का थर-थर करता होगा 
वो तलवार से मुग़ल फ़ौज को काटता हुआ 
जब आगे जो बढ़ता होगा 
तब वो दृश्य-ए-जंग देखते ही बनता होगा 
वो दृश्य भी क्या देखते ही बनता होगा 
वो दृश्य भी क्या देखते ही बनता होगा 

तपते सूरज का मज़ा लेते हुए मैं चण्डीगढ़ से मुलांपुर होते हुए कुराली रोड पर पहुँच गया | आज दौड़ लगाने के कारण गला कुछ ज्यादा ही सूख रहा था | खैर मैं तो यह सोच रहा था कि जब 10 लाख कि फौज़ का सामना 48 सिख कर रहे थे तो क्या उनका गला भी सूखा होगा ?


निःसंदेह नहीं, नहीं सूखा होगा | जहाँ गुरु गोबिंद सिंह जैसे संचालक खड़े हों वहां खौफ तो सिर्फ शत्रु ही खा सकता है !
” चिड़ियों से मैं बाज़ लडाऊ, गीदड़ों  को  मैं  शेर  बनाऊ
सवा लाख से एक लडाऊ तभी गोबिंद सिंह नाम कहाऊँ,”

कुराली से रोपड़ कि तरफ हो गया | कुराली फ्लाईओवर पे बहुत ट्रैफिक थी | बचते-बचाते फ्लाईओवर के पार पहुँचा | किले से निकले घोड़े पे सवार हुए सिंह भी मुग़लों कि फौज़ को तलवारों से काटते हुए उनके पार निकल जाते होंगे और घोड़े को पुनः मोड़ कर फिर से उनके बीच जा वीरता से लड़ते होंगे | 
रोपड़ पुलिस लाइन्स वाली ट्रैफिक लाइटों से चमकौर साहिब के लिए बाहिनी ओर मुड़ गया | कुछ दूर आगे रसूलपुर से फिर बायीं ओर मुड़ गया ओर नीलों-रोपड़ कैनाल रोड पे चलने लगा | अब रास्ता सीधा है |

आज्ञा दो पिता जी अब मैं रण में जाऊं 
आज मौका शुभ है 
मैं सिखि का मान बढाऊँ  
लिया लगा गले से 
ओर दिया शस्त्र पकड़ा 
एक वार में दो टुकड़े ओर दो में करते चार 
देख मुग़ल सेना में मचा भीषण हाहाकार 
घेर लिया है सिंह को 
डाल घेरा चारों ओर
आओ पास मेरे 
पकड़ो साहस कि डोर 
ललकारता है बाबा अजित सिंह 
करके गर्जन घनघोर


भेड़ों से कभी सिंह का शिकार होता नहीं   
मुग़ल सेना से भी वैसे ही वार होता नहीं
कायरता से ही तीरों से 
हुआ सिंह शहीद 
ललकार के बाद भी
आया न कोई मुग़ल करीब 
देख शहीदी बेटे कि 
लगाया सत श्री अकाल का जयकारा
गूंजा गर्जन से है 
सकल जहान सारा 

सुन शहादत बड़े भाई कि 
बाबा जुझार आया 
मुझे आज्ञा दो पिता जी  
धर्म ने है अब मुझे बुलाया 
रण मैं लड़ा बाबा जुझार यूँ 
बन बाबा अजीत का अवतार 
फ़र्क दोनों मैं क्या 
रही न मुग़ल सेना पहचान 


जौहर रण विद्या का ऐसा है दिखलाया 
बौखलाई मुग़ल सेना बोली 
लौट बाबा अजीत आया 

शहीद हुआ जब सिंह वो 
छाती से बरछा आर-पार 
घायल होते हुए भी 
20 और गया वो मार    

सिख ने मुंह नहीं फेरा
जब भी धर्म ने है पुकारा  
महान गुरु गोबिंद सिंह सा  
हुआ सरवंशदानी न कोई दोबारा

गुरुद्वारा श्री कतलगढ़ साहिब के सामने साइकिल लगा दी | ये गुरुद्वारा उसी जगह बना है जहाँ बाबा अजीत सिंह और बाबा जुझार सिंह जी मुग़लों से लडे थे |


बाबा जुझार सिंह जी कि शहादत के बाद गुरु गोबिंद सिंह जी युद्ध में जाने के लिए तैयार हुए | रात घिर आयी थी | "आप पत्थर को भी सिंह बना सकते हैं हमें आपके जैसा गुरु नहीं मिलेगा", ये कहते हुए पाँच प्यारों ने गुरु को रण में जाने नहीं दिया | उन्हों ने गुरु गोबिंद सिंह जी को किले से चले जाने के लिए कहा ताकि वह फिर से फौज़ तैयार कर सकें | गुरु गोबिंद सिंह जी ने चुपचाप जाना ठीक नहीं समझा | उन्हों ने शंख बजाया और एक ऊँचे स्थान पे चढ़ कर तीन बार ताली बजाई और कहा: पीर-ए-हिन्द रहावत (हिन्द का पीर जा रहा है )| 


लगभग 12:30 तक मैं चमकौर साहिब में अपनी हाज़िरी लगा चुका था |यहाँ का कण-कण वीरता का साक्षी है और गुरूद्वारे में लगे चित्र व अस्त्र-शस्त्र देख कर मन गदगद हो उठता है और आँखें नम हो जाती हैं |
धन्य हो ये धरती 
धन्य हो वो पिता 
धन्य हो वो माता 
जिनके बेटे पीढ़ियों को जीना सीखा गए........    

सूरा सो पहचानिये, जो लड़े दीन के हेत
पुर्जा-पुर्जा कट मरे, कबहुँ न छाडे खेत 
(संत श्री कबीर दास जी, गुरु ग्रन्थ साहिब)

(वही शूरवीर है जो धर्म के लिए लड़ता है 
अपना अंग-अंग कट जाने पर भी वह मैदान नहीं छोड़ता ) 

अगले भाग में पढ़िए गुरु गोबिंद सिंह जी का मुग़लों को जवाब 
और चमकौर साहिब से चण्डीगढ़ का सफ़र.....................

इस यात्रा का अगला भाग यहाँ पढ़ें