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Friday, 19 May 2017

फतेहगढ़ साहिब

हमरे वंश रीत ईम आई
शीश देत पर धर्म न जाई

यही कहा था छोटे साहिबज़ादों ने एक स्वर में, बुलंद आवाज़ में, भरे दरबार में जब वज़ीर खान ने उन्हें जान बचाने के लिए अपना सिख धर्म छोड़ इस्लाम कबूल करने को कहा था | 26 दिसम्बर 1705 के दिन उन्होंने भी अपने दादा जी के नक़्शे कदम पर चलते हुए धर्म त्यागने के बदले जान देना उचित समझा | शहीद साहिबज़ादे बाबा ज़ोरावर सिंह जी और बाबा फ़तेह सिंह जी तब सिर्फ़ 9 और 6 साल के थे |

गुरु अर्जनदेव जी पहले शहीद हुए
तब से ही सिंह सशस्त्र वीर हुए
खुसरो को दी शरण जहांगीर से बचाया
आते काल को देख बेटा गुरु बनाया
मुग़ल हुआ है वहशी बुरा वक्त है आया
अगर प्रेम और सहनशीलता से मैं जीत न पाया
फिर तुम कर धारण शस्त्र धर्म बचाना
देख लिया था गुरु ने होनी का होना
चले गए लाहौर जहांगीर बुलाया
और उनपर फिर झूठा मुकदम्मा चलवाया
दो लाख का दिया जुर्माना लगाया
आदि ग्रन्थ में कुछ फेर सुझाया
पर गुरु दृढ़ जहांगीर के हाथ न आया
जहांगीर गुरु सौंप चंदू को, जिस द्वेष दिखाया
हैवान को भी हैवानियत पर तरस था आया
जेठ महीने गुरु पानी की देग उबाला
और ऊपर सिर पर गर्म रेत भी डाला
गुरु सहा सब तेरा भाणा मिट्ठा जो लागा
रावी के जल में बहा, यासा था साधा

सेली टोपी छोड़ अब कलगी दस्तार जो पहनी
दरवेश बादशाह संत सिपाही चार एक के सानी
मिरी पीरी की दो तलवारें गुरु हरगोबिन्द लिए उठाए
योद्धा बड़ा पराक्रमी जिस सिंह सैनिक बनाए
बावन राजा मुक्त कराए चार युद्ध लड़ आए
तभी बंदीछोड़ पातशाह कहलाए
हरिमंदिर के सामने अकालतख़्त बनाए
जो किरतपुर में गए ज्योतिजोत समाए

गुरु तेग बहादुर के पास कश्मीरी पण्डित आए
फिर गुरु गोबिंद सिंह जो मार्ग सुझाए
बंदी बने गुरु संग तीन सिख भी आए
मुग़ल जिन्हें सिरहिन्द से दिल्ली लाए
लाख उकसावे औरंगज़ेब पर गुरु चमत्कार न दिखलाए
उस पर्म पिता के काम में दखल न पाए
दयाल दास जिस मुग़ल दो टुकड़े कराए
मती दास जिस खोलते तेल में गोते लाए
सती दास जिस लपेट रुईं में आग लगाई
गुरु रहे अडिग सब देख वाहे गुरु जपते जाए
मुग़ल को अपनी वहशत पर शर्म न आए
इस्लाम के नाम पर जुल्म जो ढाए
गुरु दे शीश परलोक जो पाए

सूबा-ऐ-सरहिंद में आज अत्याचार की प्रलय है आयी
दो बच्चों की जान का हुक्म है शाही
नवाब मलेरकोटला जिस लाया हा दा नारा
बाप का बदला बेटों से ये कैसा फ़रमान तुम्हारा
गल-सड़ गया है वज़ीर खान अंदर का मुस्लमान तुम्हारा

सूबा-ऐ-सरहिंद सब दे रहा दुहाई
किस नींव पर आज तुमने ये दीवार बनाई
अहंकार, बदला और द्वेष
आखिर इनकी भी तो कोई हद होगी भाई
ऐ वज़ीर खान तूने ये कैसी वहशत है दिखलाई
मासूम, खिलते खेलते बच्चे किसे न भाते
और दे फतवा आज तुम हो दीवारों में चिनवाते

राजमिस्त्री लगा है करने चिनवाई
धर्म की राह पर अटल हैं दोनों भाई
साहस, विश्वास और निर्भयता मुख तेज रूहानी
जपजी साहिब जपते दोनों एक जुबानी

दीवार में चिनता हुआ मिस्त्री घुटनों तक पहुँचा
ईंट तोड़-तोड़ बनाने लगा घुटनों के लिए खाँचा
बोला फिर वज़ीर खां मुँह से शब्द ये छूटे
तोड़ दे तू ये घुटना पर ईंट न टूटे
दीवार रहे सीधी चाहे छीलें या फूटें
जो न कबूले इस्लाम उसको यही सजा है भाई
सुच्चानन्द ने कहा ठीक
ये तो उसी सांप के सपोले हैं भाई

जब पहुंची दीवार फ़तेह के सिर तक
तो बोला वो सुन बड़े भाई
आया था तुझसे बाद पर
तुझसे पहले है मौत ब्याही
तुमसे अच्छी किस्मत है मैंने पायी
चला हूँ उस राह जिस गुरु दिखाया
मिलने अपने पुरखे जिस धर्म बचाया

गुरु गोबिंद पिता हम बच्चे जिनके
देख हमारे वंश के बलिदान कितने
और तू डराता हमको मौत दिखा के
अडिग हैं हम धर्म की राह पर
जो मर्जी अत्याचार तू डाह ले

चिन गई दीवार साहिबजादे भी चिन गए
9 और 6 साल के बच्चे आज बड़ा साका कर गए
जिस राह बड़े-बड़े न चल सके
उस राह हंसी ख़ुशी हैं चल गए

होनी को भी इस अत्याचार पे शर्म थी आयी
काल भी खा न सका दो पवित्र भाई
कुछ पल बाद ही थी दीवार गिराई
अभी भी जिन्दा थे दोनों
मौत हाथ भी न थी लगा पाई

वज़ीर खान को फिर भी शर्म न आयी
निर्दोष बच्चों पर फिर उसने कठोर क्रूरता दिखलाई
बैठ छाती पर दोनों का गला कटवाया
दरिंदगी का परचम सूबा सरहिंद लहराया

ऐसी शहीदी न देखी कहीं जग देख मुकाया
चारों सुत देकर दशमेश नाम कमाया
सरवंश दान कर सरवंश दानी कहलाया
धन गुरु गोबिंद सिंह आपे गुरु-चेला
जिस धर्म की खातिर क्या न लुटाया

आठ महीने, अनन्दपुर के किले को मुग़ल तथा पहाड़ी राजाओं कि संगठित फ़ौज घेर कर बैठी रही | आपसी रजामंदी पर जब गुरु गोबिंद सिंह जी सपरिवार बाकि सिंहों के साथ अनन्दपुर से निकलते हैं तो पहाड़ी राजाओं के मुग़लों के साथ मिलकर अचानक किए गए विश्वासघाती हमले के चलते सिरसा नदी को पार करते हुए परिवार के तीन हिस्से हो जाते हैं | गुरु गोबिंद सिंह जी बड़े साहिबज़ादों (बाबा अजित सिंह जी एवं बाबा जुझार सिंह जी) के साथ निहंग खां पठान के पास ठहरने के बाद 7 पोह (20 दिसम्बर 1705) की शाम तक चमकौर पहुँचते हैं | माता सिमरत कौर जी और माता साहिब कौर जी माई भागोवाल जी के साथ एक रात रोपड़ में गुज़ारने के बाद दिल्ली की तरफ चलीं जातीं हैं | गुरु माता गुजरी जी और छोटे साहिबज़ादे (बाबा ज़ोरावर सिंह जी और बाबा फ़तेह सिंह जी) सिरसा और सतलुज के किनारे-किनारे चलते हुए बाबे कुम्मे मश्क़ी की घास-फूस की झोंपड़ी में रात बिताने के बाद 8 पोह को रसोईये गँगू के घर ठहरते हैं |
गँगू को सिख इतिहास में गँगू पापी भी कहा जाता हैं क्यूँकि वो शाही ईनाम के लालच में आकर 9 पोह की सुबह मोरिंडा के कोतवाल जानी खां और मानी खां को गुरु माता और छोटे साहिबज़ादों का पता बता देता है | 10 पोह को माता गुजरी और छोटे साहिबज़ादों को सरहिंद लाया जाता है और ठन्डे बुर्ज़ में कैद कर दिया जाता है | 11 पोह को पहली पेशी होती है फिर 12 को दूसरी और 13 पोह को उन 9 और 6 साल के बच्चों को नींव में चिनवा दिए जाने का शाही फ़रमान जारी किया जाता है |


गुरुद्वारा श्री फतेहगढ़ साहिब, जहाँ छोटे साहिबज़ादों को नींव में चिनवा दिया गया | नींव में चिनवाने के बाद मुग़लों को अब भी यकीन न हुआ था कि वाकई उन्होंने गुरु गोबिंद सिंह जी के वंश का अंत कर दिया है या नहीं | दीवार गिर गई और बाद में अत्याचारी वज़ीर खां ने छोटे साहिबज़ादों का अचेत अवस्था में सिर कलम करने का आदेश सुनाया |


इन पुत्रन के कारने वार दिए सुत चार
चार मुए तो क्या हुआ जीवित कई हजार
-गुरु गोबिंद सिंह जी

अपने असंख्य पुत्रों की रक्षा हेतु
मैंने वार दिए अपने सुत चार
जिस धर्म की खातिर चार गए
उसे जीवित रखते ये हज़ार

खैर मुग़ल जिसे वंश का अंत समझ रहे थे वो कहाँ जानते थे कि गुरु गोबिंद सिंह जी तो दशमेश पिता बन चुके हैं | हर एक सिंह स्वयं गुरु गोबिंद जी का बेटा है |



गुरुद्वारा साहिब ठण्डा बुर्ज़ जहाँ माता गुजरी जी और छोटे साहिबज़ादों को कैद करके रखा गया और यहीं माता गुजरी जी ने प्राण त्याग दिए |
गुरुद्वारा श्री ज्योति स्वरूप साहिब जहाँ माता गुजरी जी तथा छोटे साहिबज़ादों का अंतिम संस्कार किया गया | यह गुरुद्वारा जिस जगह बना है वह संसार की सबसे महँगी ज़मीन है जिसे गुरु गोबिंद सिंह के अनुयायी दीवान टोडर मल ने अत्याचारी वज़ीर खां से खरीदा | जब माता गुजरी और छोटे साहिबज़ादे शहीदी पा गए तो क्रूर वज़ीर खां ने उनका संस्कार करने के लिए भी ज़मीन न दी और यह शर्त रखी की सोने के सिक्कों को खड़ा करके ज़मीन लेलो और संस्कार कर लो | तब टोडर मल जी जो गुरु गोबिंद सिंह के सच्चे अनुयायी थे, उनहोंने इस संसार की सबसे महँगी ज़मीन को बाशर्त खरीदा और माता गुज़री तथा छोटे साहिबज़ादों का अंतिम संस्कार किया | उनके गुरुधर्म पर अटल बने रहने के कारण उन्हें दीवान की उपाधि दी गई |


सरहिंद फतेहगढ़ साहिब का पुराना नाम है | बाबा फ़तेह सिंह जी के नाम पर इसका नाम फतेहगढ़ साहिब किया गया | पंजाब राज्य में फतेहगढ़ साहिब जिला है | फतेहगढ़ साहिब शहर में आने-जाने के लिए चार रास्ते हैं | चारों रास्तों पर भव्य द्वार बनाए गए हैं | इन द्वारों के नाम हैं :
1. बाबा बन्दा सिंह बहादुर द्वार (जिन्होंने मुग़लों को हरा कर फिर से सुशासन स्थापित किया)
2. दीवान टोडरमल द्वार (जिन्होंने संसार कि सबसे महंगी ज़मीन ख़रीद छोटे साहिबज़ादों और माता गुजरी जी का संस्कार किया)
3. बाबा मोती राम मेहरा द्वार (जिन्होंने ठण्डे बुर्ज़ में बंदी बनाए गए छोटे साहिबज़ादे और माता गुजरी जी को दूध पिलाने कि सेवा की और वज़ीर ख़ान ने उन्हें परिवार सहित कोहलू में पिसवा दिया)
4. नवाब शेर मुहम्मद ख़ान द्वार (जिन्होंने वज़ीर ख़ान के उकसावे में न आकर अपने भाई की मौत का बदला बच्चों से लेना उचित न समझा व उसके इस कृत्य की कड़ी निंदा की)


14 मई 1710 को वज़ीर ख़ान को उसके अत्याचारों कि कीमत चुकानी पड़ी | बन्दा सिंह बहादुर जी के नेतृत्व में सिंहो ने सरहिंद फ़तेह कर फिर से सुशासन स्थापित किया | 

हर साल 26 से 28 दिसंबर, शहीदी जोड़ मेला और 12 से 14 मई, सरहिंद फ़तेह मेला लगता है | इन्हीं मेलों के आस-पास यात्रा करें तो आपको पंजाब की अच्छी झलक देखने को मिलेगी |

चण्डीगढ़ से फतेहगढ़ साहिब लगभग 50 km दूर है | जेठ (15 मई 2017 ) महीने में की गई इस साइकिल यात्रा में गर्मी का भीषण प्रकोप रहा और बाकि की कसर SH-12A के जानलेवा ट्रैफिक ने निकाल दी | अगर इन गर्मियों में कहीं यात्रा कर रहे हों तो सुबह या शाम को ही करें, गर्मी में निकलने से बचें | हमेशा पानी का घूँट भर कर रखें इससे गला नहीं सूखेगा, साँस लेने में भी कम तकलीफ़ होगी और दिमाग़ को यह विरोधाभास रहेगा की पानी की कमी नहीं है जिससे माँसपेशियों में क्रैम्प पड़ने का अंदेशा भी कम रहेगा | शरीर पूरा ढक कर चलें लू से बचाव रहेगा | भरी गर्मी में मशक्कत करने पर सबसे  पहले पसीना आता है फिर पसीना आना बंद होता है फिर नाक बहती है इससे आगे आप बेहोश हो सकते हैं | जिस्म की स्तिथि का अंदाज़ा मूत्र के रंग से भी लगाया जा सकता है | साइकिल चलाते हुए बारी-बारी से एक टाँग से ज़ोर लगाएँ और दूसरी को रेस्ट करने दें इससे आप लगातार ज़्यादा दूरी तय कर सकते हैं | कृप्या हेडफोन लगा कर साइकिल न चलाएँ और हो सके तो साइकिल में रियर व्यू मिर्रर लगवा लें इससे बार-बार पीछे मुड़ कर देखना नहीं पड़ेगा व गर्दन को भी आराम रहेगा | बाकि रास्ते की जानकारी आपको गूगल मैप्स पर मिल जाएगी |



मैं चारे पुत्त क्यों वारे ज़रा विचारयो
जे चले ओ सरहन्द नूं मेरे प्यारओ
मेरे लालां दे नाल रेह के रात गुज़ारयो

कुछ अन्य यात्राएँ जो सिख इतिहास से सम्बन्ध रखतीं हैं :

चमकौर साहिब यात्रा

Friday, 3 March 2017

बाबा बन्दा सिंह बहादुर की याद में, मैदान-ए-जंग चपड़ चिड़ि, मोहाली, पंजाब


मैं तो बहुत व्यस्त हूँ
सांसारिक क्रियाकलापों में मस्त हूँ 
और आप तो हर जगह
फिर काहे आपको ढूंढने
निकलूँ हर जगह
बहुत मज़ा मुझको है आ रहा 
फिर भी जाने क्यों 
मन तेरी है सुन पा रहा
थोड़ी देर के लिए सही
जैसे पहले ग़ुम थे
वैसे ही हो जाओ 
ऐ मन माया में लिप्त हो जाओ 
लेकिन हक़ असल की ना 
जोत जगाओ
ये जोत शुद्ध घी ज्वाला 
जो सब कुछ खा जाए
पर्दा सच झूठ का 
साफ़ नज़र आए

हे! मेरे रहनुमा 
मैं क्या करूँ
तू ही सच्ची राह दिखा 
जिस पे चलूँ
मैं क्या करूँ

कहाँ जाऊँ
हर जगह ही तुम हो
जब थक जाता हूँ 
तब दिखते तुम हो
अच्छा तुम ही बताओ
कहाँ क्या है 
राह कौन सी की 
सीधा तुम्हें पाऊँ
घुमंतू इस मन से 
पीछा छुड़ाऊँ
आखिर कहाँ जाऊँ

हाँजी भाईसाहब
महीना होने को आया
कहीं गए नहीं

मेरे रहनुमा 
तुम नहीं कहाँ
खैर 
तुम तो हो हर जगह
जीवन के सम्पूर्ण अनुभव
और तुम्हारा अनुभव 
तौला गया सोना कहाँ 
धूल से भला
मेरे रहनुमा 
तू ही कोई उपाए सुझा    

मेरे रहनुमा
तेरे सवाल का जवाब तो मेरे पास नहीं
ख़राब साइकिल का पहला बहाना ही सही
या छुपा लूँ मैं आलस अपना व्यस्तता का दूसरा सुना
या शारीरिक कमजोरी का तीसरा बता
दवाई की ख़ाली डिब्बी दिखा
मेरे रहनुमा
अब तू ही कोई राह दिखा

हाँ भाई
कितना आसान है
हार मान लेना
बहाना बना लेना
दोष दूसरे पे डाल देना
जिम्मेदारी से मुँह मोड़ लेना

अच्छा रुक
एक कहानी सुनाता हूँ
तुझे सोये से जगाता हूँ


ध्यान से सुनना:

सिखों के इतिहास की
बता रहा हूँ एक वीर कहानी
जब मुग़लों ने अत्याचार कर
धर्म की दुर्दशा थी कर डाली
तब गुरु गोबिंद सिंह ने
दक्षिण की तरफ़ डेरा डाला
वैरागी एक ध्यान में आया बोलाबाला
गोदावरी किनारे सोच विचारी
दिखा एक मनुष्य साहसी अहँकारी
जो था अंदर से बलशाली
लेकिन सच्चे फूल से अनभिज्ञ 
था वो माली
सभी सूरतों ने एक दूसरे की
सूरत देखी
गुरु ने शिष्य की
मूरत देखी  
धर्म की रक्षा कर जिसने
अमर अपना नाम किया
गुरु वचन का निर्वाह किया

पैदल चलता हुआ 
सोच रहा हूँ
इतिहास की परतें 
खोल रहा हूँ
जब गुरु गोबिंद सिंह 
गए दक्षिण
शायद जानते थे 
अगला बन्दा मिलेगा वहीँ
शायद जानते थे 
जब मिला वो बन्दा
तो दोनों धन्य थे हुए
एक दूसरे की इच्छ्या के 
दोनों आदि शक्ति के 
पूरक थे हुए
और वो बन्दा भी क्या 
बन्दा निकला
गीदड़ों में छुपा
वो सिंह निकला

27  अकतूबर सन 1670

पुँछ की राजौरी में
किसान राम देव के घर में
लछमण देव ने जन्म लिया
लड़कपन से ही जिसने
शिकार के खेल को साध लिया

एक बार उसने एक हिरणी का शिकार था किया
प्राण त्यागते ही जिसने बच्चों को जन्म था दिया
आघात इस बात का उसके ह्रदय पर था हुआ
पश्चाताप में वह संसार से विरक्त था हुआ
वैरागी जानकी प्रसाद का शिष्य था बना
तभी लछमण देव से माधो दास नाम था हुआ

साधु राम दास से घुम्मकड़ी सीखी
योगी औघड़ नाथ से कला योग
गोदावरी किनारे चलते-चलते
जा बसा नंदेड़

सन 1708

मिला जब वो गुरु गोबिंद से
अज्ञान दूर था हुआ
कर्मयोगी को कर्म का
आदेश था हुआ
बना वो बन्दा गुरु का
पर गुरु ने बन्दा सिंह था किया

पाँच तीर नगाड़ा, निशान था दिया
और बन्दा सिंह से
बन्दा सिंह बहादुर बना था दिया
आज्ञा पा गुरु की
पंजाब को चला

कुछ ही समय बाद उसे
गुरु के ज्योतिजोत सामने का
समाचार उसे मिला
सिरहिंद के पठान के
विश्वासघात का पता चला

बन्दा सिंह बहादुर बना
मज़लूमों की सहायता करने को
अन्याय से लड़ने को
धर्म पर चलने को
गुरु के उद्देश्य का
उनके बाद भी पालन किया
और उनके जाने की ख़बर ने
इरादों को और मज़बूत बना दिया

पहले जीता सोनीपत
फिर बांटा समाना कैथल का खज़ाना
नज़र तो बन्दा सिंह बहादुर की सिरहिंद पर थी
पर अभी सेना को और शसक्त जो था बनाना
ऐसा चला सिंहो का विजय अभियान
जीत लिए घुरम थसका शाहबाद और मुस्तफाबाद
सिरहिंद न था अब बहुत दूर
कब्ज़े में लिए कपूरी सढ़ौरा और बनूर

बन्दा सिंह बहादुर की सेना को और शसक्त करने को
माझे और दोआबे के सिंह भी आये धर्म के लिए लड़ने को
खरड़ और बनूर के बीच सिंहो का मेल था हुआ
सिंहासन वज़ीर ख़ान का डांवांडोल था हुआ


चपड़ चिड़ि की लड़ाई :

वज़ीर खान थर-थर काँप था गया
तभी कूटनीति का उसने सहारा था लिया
सुचानंद के भतीजे को
बंदा को कमज़ोर करने को
हज़ार सिपाही देकर
बंदा सिंह की तरफ़ भेज था दिया
जिसने बगावत का झूठा ढोंग
बखूबी था किया

वज़ीर खान सिरहिंद का 
था बड़ा अहंकारी 
थी छल कपट से उसने हमेशा 
बाजी मारी
इस बार भी उसने 
रावल पिंडी संदेसा भिजवाया 
कहा मुस्लिम धर्म पर है 
संकट आया
तुम आओ फ़ौज लेकर 
काफ़िर को हराओ
अल्लाह का तुम 
हुक्म बजाओ
देखो कब से ये जंतर चलता आया 
धर्म  का सहारा ले इंसान लड़ाया 
खैर
अब तो समस्त भारत है 
इसने मार गिराया 
वज़ीर खान का अस्त्र
सियासत ने अपनाया

पर बन्दा सिंह बहादुर
मुग़ल फ़ितरत से कहाँ महरूम था
उसे अपने गुरुओं के साथ हुए विश्वासघातों का 
पूरा इतिहास मालूम था
हम सब जागें तो बन्दे का संकल्प पूरा हो 
धर्म से उठें तो वतन पूरा हो 

उस तरफ़ थे हाथी घोड़े तोपें
जो बड़ी तादात में इकट्ठी हुईं
और बंदूकों की गिनती 
अनगिणत हुई 
इस तरफ़ टूटे भाले
और तलवारें लड़-लड़ के 
धारहीन थीं हुईं

लड़ाई शुरू हुई
चपड़ चिड़ि के मैदानों में
मुग़ल सेना आश्वस्त थी बहुत
वज़ीर खान को विश्वास था बहुत
अपनी कूटनीति चालों में
जब भागा वो गद्दार
सिंह भी थे कुछ घबराए
लेकिन फिर बन्दा सिंह बहादुर
मैदान-ए-जंग में खुद चले आए


होंसला बुलंद हुआ सिंहों का
वाहेगुरु जी की फ़तेह के जयकारे लगाए

होंसले, विश्वास से भरपूर सिंहों ने फिर
बड़ी बहादुरी से लड़ाई लड़ी
मुग़ल सेना की बुरी हालात थी हुई
देख कर ये वज़ीर खान था घबराया
और बर्छे से बाज़ सिंह को मारने था आया
सिंह ने उसी का बर्छा उससे छीना उसी से
उसके घोड़े को मार गिराया
फिर चलाया तीर  वज़ीर खान ने
बाज़ सिंह के बाजु को निशाना बनाया
और तलवार निकाल अपनी
निहत्थे का सामना करने को आया
फ़तेह सिंह ने देखा ये दृश्य
वो पास ही था खड़ा
बाज़ सिंह की रक्षा करने को आगे बढ़ा
वार करने को आते वज़ीर खान के
सारे होंसले पस्त कर दिए
एक ही वार में उसके
दो टुकड़े कर दिए
वज़ीर खान के मरने की देर थी
मुग़ल सेना बिना नायक के
भटकते लोगों का ढ़ेर थी
और दहाड़ते सिंहों के आगे
जैसे लाचार भेड़ थी

जीता सिरहिंद बन्दा सिंह बहादुर ने
जहाँ गुरु गोबिंद के बच्चे चिनवा थे दिए
किया फ़तेह वो बुर्ज
जहाँ माता गुजरी ने प्राण
त्याग थे दिए
आज सूबा-ए-सिरहिंद पर
धर्म के परचम लहरा थे दिए



हाँ भाई
कहो कैसी रही
जी बहुत खूब कही
अभी चलता हूँ
साइकिल न सही
टाँगें तो हैं
घमण्ड न सही
हिम्मत तो है
और
चलने वाले कब
सवारी के मोहताज हैं हुए
किनारे बैठ कर कब
दरिया पार हैं हुए
और जो दम रखते हैं
वो अपने दम पर चलते हैं
मोटर गाड़ी साइकिल के कब
ग़ुलाम बनते हैं
और जब चलता हूँ खुद से बतियाने को
अपने अंदर की राह पाने को
उसी की तलाश में
फिर ये वक्त की पाबन्दी कैसी
समय का आडम्बर कैसा
और किस मुँह से कहूँ 
मैं व्यस्त हूँ
तुम्हारा दिया काम तो मुझसे किया ना गया

जी
मैं पैदल ही चला जाऊँगा
अब न कोई बहाना बनाऊँगा
चण्डीगढ़ सेक्टर 12 से
चपड़ चिड़ि का मैदान
कहाँ ज्यादा दूर है
और एक तरफ़ का 15 Km
आना-जाना 30 है
सीधा नाक की सीध है 
अब तो पैदल ही जाऊँगा
तभी बन्दे की 
वीरता पहचान पाऊँगा
इस यात्रा का क्या लिखूँ
क्या कहानी कहूँ 
और वृतांत लिख भी दूँ तो 
क्या मेरा औचित्य पूरा होगा 
बन्दा सिंह बहादुर के आगे 
मेरी कहानी का क्या महत्व होगा 
और क्यों कोई पढ़ना चाहेगा मुझे
जो मैंने वो लिखा ही नहीं 
जो सच इतिहासकारों ने मिटा दिया 
जो है मेरे दिल की आवाज़ 
उसे दबा कर रास्ते का 
वर्णण कर भी दूँ तो
फिर तो अपने मन की आवाज़
को मैंने दबा दिया
लिख दिया आज जो आया ज़ेहन में 
कलम के सब हिज़ाबों को मिटा दिया 
और पैदल 30 Km चला भी गया 
तो कौनसा मुकाम पा लिया
खैर
बीहड़ों में पैदल चलना फिर आसान है
क्योंकि वहां और कोई चारा नहीं
मुश्किल तो शहर है
शरीर चल है रहा 
मन है खड़ा
हर मोड़ पे ऑटोवाला पूछता है
कहाँ जाओगे
और मैं रहा स्तब्ध खड़ा

ओ बन्दे आ जाओ फिर से इस जहान में  
वज़ीर खान बन नशा हुक्म चला रहा 
और आज जनता आदि है हुई 
सुच्चानन्द ठहाका लगा रहा 
उसका भतीजा धर्म का चोगा पहना
कितनों के घर उजाड़ रहा

मेरे रहनुमा 
तेरी रज़ा में राज़ी मैं हुआ
क्या-क्या नहीं तूने मुझे दिखा दिया
धार्मिक तो वे थे जो इंसानियत के लिए सर कटा गए
आज फिर किसी ने धर्म के नाम पर दंगा करवा दिया






Saturday, 14 January 2017

अमृतसर से चण्डीगढ़ वापसी यात्रा (चण्डीगढ़-वाघा-चण्डीगढ़ साइकिल यात्रा अंतिम भाग-6)

निकलता हूँ यात्रा पर
तब एक लक्ष्य
सामने होता है
पाने को जिसको
निरंतर प्रयास होता है
वही दिखता है वैसे
अर्जुन को आँख जैसे
और उस तक पहुँचने को
उत्सुक ये मन होता है

अगर मैं कहूँ
की लक्ष्य ही प्रेरणा है
तो लक्ष्य पर पहुँच कर
लौट के आता कैसे
अगर मुसाफ़िर बन ये
कहूँ की चलना मेरा काम
तो फिर ये लक्ष्य कैसा
मेरे लिए तो हर जगह एकसमान जैसे

की क्या सीखा क्या देखा
क्या खोया क्या पाया
इस यात्रा से जीवन में
क्या बदलाव आया
यही सब सोचता हुआ
लौट आता हूँ
लक्ष्य पर पहुँच कर
माना कुछ देर ख़ुशी
का एहसास कर
भ्रमण विचरण कर
जब वापसी की राह
को देखता हूँ
फिर सोचता हूँ
भाई क्यों ये पंगा ले लिया ?
और बन हीरो
अब हो गई ना
सारी मोटीवेशन ज़ीरो
अब कैसे वापस जाएगा
कठिनाईयों से भरा रास्ता
कैसे काट पाएगा
और लक्ष्य को तो पा लिया
अब तो वापसी बाकी है
और जो है ली निगल
गले में फँसी वो लकड़ी बाकी है
और बन कछुआ
वो लकड़ी दबोच मैं लूँ
पर फिर भी संकोच में हूँ
की क्या करूँ क्या न करूँ
कैसे धीरज धरूँ
और अगर वो लकड़ी
दूँ मैं छोड़
फिर पंचतंत्र
तो सार्थक जाएगा हो
और ऐसा तो हर कोई सोचता है
की मैं तो अलग हूँ
मैं तो अलग हूँ सोचता
और मेरे साथ न होगा वो
जो सबके साथ है हुआ
और हो रहा
ये सोच तो शैतान की है
और यही कहूँगा की शैतान
लिहाज़ नहीं करता
बस एक गलत कदम और
वह आगोश में ले धरता
फिर रोएँगे माँ-बाप, भाई-बहन सब
यही सत्य है
और तुम
रखना भरोसा अपने रहनुमा पर
जो वो राह दिखाए उसी पे चलना
जिससे वो मिलाए उसी से तुम मिलना
जिससे वो बुलवाए उसी से बतियाना
और मेरा अनुभव तो यही है
यही है मेरा कहना
की जाना मुश्किल है और
बहुत मुश्किल
लौट के आना
इसलिए
संभल के तुम जाना
और उससे भी
संभल के लौट आना
की तुम नहीं जानते
जो बेवजह लड़ते भी हैं
वो हमसे कितना प्यार करते हैं

शाम के करीब 5 बज रहे होंगे | वाघा बॉर्डर से मैं अमृतसर की तरफ़ चल पड़ा | मैं पहले ही इरादा बना चुका था कि अमृतसर नहीं जाऊँगा | शहर के बाहर-बाहर से होते हुए जलंधर रोड़ तक आ गया | साइकिल चलता ही जा रहा हूँ, थकान की कोई सुध नहीं पर रात घिर आयी है और मैं ढूँढ रहा हूँ रात बिताने का कोई आशियाना | आखिरकार मैं सफ़ल हुआ और अमृतसर से लगभग 35 km बाहर एक ढाबे में कमरा ले लिया |

सुबह 5 बजे उठ गया और चल पड़ा चंडीगढ़ की ओर | ढाबे से ब्यास पहुँचा और वहां मिली दरिया के आस पास की धुंध जो कभी एक दम गहरी होती है और कभी एक दम पतली जैसे अँधेरे में किसी ने कोई तिलिस्म किया हो | वैसा ही तिलिस्म जैसा हम सब पे हुआ पड़ा है कि क्या सही क्या गलत हमें नज़र ही नहीं आता और हम सब जी रहे हैं दिखावे की ज़िन्दगी | जिसमें खुद को दूसरे से ऊँचा दिखाना ही हमारा लक्ष्य है |

यह धुंध हो जाती है गहरी
की मनो कह रही हो
मुझे पार करने की कैसी यह तुम्हारी रज़ा है
मैं तो बहुत बलवान हूँ कि कुछ न देखने दूँगी,
कि तुम हो उद्यमी तो तुम्हें खुद अपनी राह ढूँढ़नी होगी
और मैं इसके अंदर धीरज़ रख बढ़ता जाता तो ये
धुंध का गुबार पतला होता चला जाता
मानो मुझसे कह रहा हो कि लड़ोगे अगर
तो प्रकृति रास्ता भी देगी
लड़ना ही तो ज़िन्दगी है
ज़िंदादिली है
पर दिलोदिमाग को ठिकाने लगा के
तुम लड़ना, झूठी शान पर तुम न अकड़ना
प्रकृति भी माया उसी की सब जानती है उसी की तरह
समझो तो सही रहनुमा की गिरह

यह गिरह सुलझाते-सुलझाते कब ब्यास से करतारपुर तक का वो खतरनाक रास्ता पार कर गया पता ही नहीं चला |




करतारपुर में भोर हो गई है पर सूरज नहीं निकला | जलंधर जाकर कहीं सूर्यदेव के दर्शन हुए | जलंधर में चाय पी और जो कुछ खाने को मिला खाया (मट्ठी,बन,फैन ) जलंधर से फगवाड़ा और फगवाड़ा से नवांशहर रोड़ पे चलने लगा | अब मैं साइकिल चलाते हुए सोच रहा हूँ कि अगर मैं अकेला न आता तो मुझे बँटवारे के दर्द का एहसास कभी होता ही नहीं | मैं भी मशगूल रहता बातों में, हंसी मज़ाक में और इस दर्द का ख्याल ग़र आता भी तो मैं शायद इसे किनारे कर देता पुराने कपड़ों की तरह जो आपको पसंद तो बहुत हैं पर उनपे लगा वो दाग़ आपको अच्छा नहीं लगता |
शायद ये मेरे रहनुमा की मर्जी है, उसी का कोई इशारा है |



वापसी के समय जब आप वैसे ही थोड़े उदास होते हैं कि जिस लक्ष्य को पाने गए थे वह तो पा लिया अब बोरिंग वापसी बाकी है | अगर मोटरसाइकिल पे होते तो कान मरोड़ देते बाइक का, अगर कार में होते तो गाड़ी के पैर की छोटी ऊँगली दबा देते अपने पैर से और गाड़ी नॉनस्टॉप पहुँच जाती घर; लेकिन यह साइकिल है साहब ज़ोर माँगती है, थके हों या हों ऊर्जावान यह कहाँ फ़र्क पहचानती है | यह बस ज़ोर से चलती है और शरीर का ज़ोर माँगती है फिर भूखे हों या पेट भरे अंग्रेज़ी सरकार कि तरह कोई रहम नहीं करती तभी मुझे इसपे भरोसा है मोटर गाड़ी पे नहीं और यह तो इतनी हल्की है कि कंधे पे उठा के भी घूम सकता हूँ |

फगवाड़ा से नवांशहर-चंडीगढ़ की तरफ़ मुड़ गया | इस रास्ते पर आप जितना चाहें उतना तेज़ चल सकते हैं | ट्रैफिक कम है और अच्छी सड़क है | नवांशहर पहुँचते-पहुँचते भूख लग गई | आखिरी पेट भर कर खाना मनदीप के घर खाया था, यात्रा की पहली रात में, उसके बाद 14 केले खाये थे जालियांवलबाग के बाहर केले के ठेले पर जहाँ मैं अपनी साइकिल छोड़ गया था और ढाबे पर रात के खाने का पूछो मत, मंगवा तो ली पर खायी न गई तंदूरी लक्कड़ रोटी और फुलनमक दाल मखनी जिसको सूंघ कर मैं बता सकता था कि यह 4 दिन पुरानी थी | उस रोटी का अगर सुदर्शन चक्र बना ख़ानसामे की गर्दन पे मरता तो वो भी टूट जाती ! खैर यह अतिशयोक्ति हो गई पर वो रोटी चबाई ना गई थी |


नवांशह पहुँच कर एक कुलचे वाले के पास रुका | अक्सर कुलचे वालों के पास उबले आलू या उबले चने मिल जाते हैं और इस समय इन सबसे बेहतर क्या होता ?


देसी बन्दे की देसी खुराक; हाँ! यही कहा था उस कुलचे वाले ने |
उसके इस वाक्य के साथ हमारी उच्चस्तरीय बहुआयामी बातचीत शुरू हुई और हमने बातों ही बातों में इस देश की तमाम मुश्किलों का हल निकाल डाला | यह देश धन्य है जहाँ चाय वाला प्रधानमंत्री है, कुलचे वाला चाणक्य और एक बेरोज़गार इंजीनियर साइकिल पे घूम रहा है और वो वह सब सीखता है जो उसके प्रोफेसर ने कभी पढ़ाया ही नहीं!!! "ख़ालिस ज्ञान"| आज कुछ सीखने की नहीं सीखा हुआ भूलने की ज़रुरत है | हम साले सब कितने होशियार हो गए हैं, "Now it is time to unlearn and return Back To Basics".
यह मेरे नहीं कुलचे वाले के ख्याल हैं!!!
मैंने पूछा तो नहीं पर सोचता हूँ कहीं वो भी इंजीनियर तो नहीं था | ऐसे उच्चविचार तो बेरोज़गार इंजीनियर के ही हो सकते हैं !!!


बलाचौर ज्यादा दूर नहीं है यहाँ से बस चलते रहो और आप पहुँच जाओगे ठिकाने पर | बलाचौर से रोपड़ और वहाँ से कुराली और कुराली से न्यू चंडीगढ़ वाली रोड़ |


अभी दो बज रहे हैं, पहली जनवरी 2017 के और घंटे भर में मैं अपने कॉलेज पहुँच जाऊँगा | 30 दिसम्बर दोपहर 1 बजे शुरू की थी ये यात्रा और अब अंतिम पड़ाव में है, पर वो ख़ुशी पता नहीं कहाँ है जो इन हालातों में मैं महसूस करता हूँ | आज मैं ख़ुश नहीं और ये यात्रा मुझे कभी ख़ुशी दे भी न पाएगी | हाँ, मैंने जाना बँटवारे को, उसके दर्द को, वाघा की सरहद को और अपने संवेदनशील एहसास को | हे! मेरे रहनुमा उन सभी को मुक्ति दे जिनको चिता की आग और कब्र की मिट्टी तक नसीब न हुई | उन्हीं बेकसूर रूहों के नाम...........


अज आखाँ वारिस शाह नू कितों कबराँ विचों बोल
अज किताब-ए-इश्क़ दा कोई अगला वरका फोल
इक रोई सी ती पंजाब दी वे तू लिख-लिख मारे वैण
अज लखां तीयाँ रोंदीयाँ तेनू वारिस शाह नू कैण
वे दर्दमंदा देया दर्दीया उठ तक अपना पंजाब
अज वेले लाशां बिछियाँ ते लहू दी भरी चेनाब
आज वारिस शाह को पूछती हूँ एक सवाल
कब्र से अपनी चाहे तुम जवाब बोलो
आज इश्क़ की किताब का अगला पन्ना खोलो
एक (हीर) पंजाब की बेटी जब थी रोई
लिख-लिख मारीं तुमने तोहमतें कसूरवारों की थू-थू थी होई
आज लाखों बेटियां हैं रोयीं पंजाब में
तुझसे कर रहीं सवाल जलीं जो बँटवारे की आग में
उठ दर्दमंदों के हमदर्द देख क्या हुआ आज पंजाब में
आज खेतों में लाशें हैं बिछी और लहू बहता चेनाब में
किसे ने पंजाँ पाणियाँ विच दित्ती ज़हर रला
ते ओहना पाणियाँ तरत नूँ दित्ता पाणी ला
इस ज़रख़ेज़ ज़मीं दे लूँ-लूँ फुटया ज़हर
गिठ-गिठ चड़ियाँ लालियाँ फुट-फुट चढ़या कैर
किसी ने पाँचों दरियाओं में घोल ज़हर दिया
और इनके ज़हरीले पानी ने धरती को सींच दिया
इस उपजाऊ धरती पर अंकुरित हो आया है ज़हर
खून से लाल हुई है यह और हर तरफ़ फूटा है कहर
विऊ वलिसी वा फिर बण-बण वग्गी जा
हर एक बाँस दी वंजली दित्ती नाग बणा
पहलाँ डंग मदारियाँ मन्तर गए ग्वाच
दूजे डंग दी लग्ग गई जणे खणे नू लाग
लागाँ किले लोक मुँह बस फिर डंग ही डंग
पलों-पले पंजाब दे नीले पे गए अंग
यह ज़हरीली हवा जो वन-वन में लगी चलने
हर बाँस की बाँसुरी लगी नाग बनने
सबसे पहले वो डसे जो जानते इसका इलाज
दूसरे डंग से तो सबके हुए यही मिज़ाज  
बढ़ते-बढ़ते इन नागों ने सबके होंठ लिए डंग
और अच्छे भले पंजाब के नीले पड़ गए अंग
गलयों टूटे गीत फिर तकलियों टूटी तंद
तरिन्जनो टुटियाँ सहेलियाँ चरखड़े घुकर बंद
सणे सेज़ दे बेड़ियाँ अज लुड्डण दित्ती ऱोड़
सणे डालियाँ पींघ अज पीपलाँ दित्ती तोड़
गले से गीत न निकला फिर तकली से धागा टूटा
सहेलियाँ बिछड़ गयीं और चरखा भी छूटा
मल्लाहों ने सारी किश्तियाँ बहा दी सेज़ के साथ
पीपल पे पड़ा झूला भी तोड़ा डाल के साथ
जित्थे वजदी फूँक प्यार दी ओ वँझली गई ग्वाच
राँझे दे सब वीर अज भुल गए उसदी जाँच
धरती ते लहू वस्या कबरां पइयाँ चोण
प्रीत दियाँ शहज़ादियाँ अज विच मज़ाराँ रोण
अज सब्बे कैदों बण गए हुसन इश्क़ दे चोर
अज कित्थों ल्याइए लब के वारिस शाह इक होर
अज आखाँ वारिस शाह नू कितों कबराँ विचों बोल
अज किताब-ए-इश्क़ दा कोई अगला वरका फोल

ग़ुम हो गई वो बांसुरी जो बजती थी मार प्यार की फूँक
राँझे के भाई सब इसकी कला गए भूल
धरती पर बरसा लहू कब्रों में खून टपकने लगा
पंजाब की लड़कियाँ पर सारी विछोह का दर्द हावी हुआ
प्यार के चोर आज सभी औरतों के व्यापारी गए हैं बन
और कहाँ से ढूँढ़ के लाएँ आज वारिस शाह एक और हम
  
आज वारिस शाह को पूछती हूँ एक सवाल
कब्र से अपनी चाहे तुम जवाब बोलो
आज इश्क़ की किताब का अगला पन्ना खोलो  


(-अमृता प्रीतम)
(हिंदी अनुवाद मैंने खुद किया है | आपके सुझाव एवं सुधार सादर आमंत्रित हैं, भूल-चूक माफ़ कीजिएगा पर प्रकाश में ज़रूर लाईएगा |)



यात्रा विवरण 

पहला दिन

100 km - चंडीगढ़ से गढ़शंकर - 4:30 घण्टे----खर्च = ० रुपए

दूसरा दिन

140 km - गढ़शंकर से अमृतसर (वाया बंगा-जलंधर-ब्यास-अमृतसर-स्वर्ण मंदिर)- 7 घण्टे---- खर्च = 20 रुपए (चाय+मट्ठी)
34 km - अमृतसर से वाघा बॉर्डर- 1:30 घंटा----- खर्च = 50 रुपए (14 केले)
34 km -  वाघा बॉर्डर से अमृतसर वापसी- मैप नहीं बनाया ---खर्च = ० रुपए
48 km- अमृतसर से थोड़ा पीछे से ढाबे तक- 3 घण्टे ---- खर्च = कमरा 400 रुपए (न्यू ईयर करके महँगा मिला) + रात का खाना 100 रुपए (खाया नहीं गया) + पानी की बोतलें = 50 रुपए
कुल = 620 रुपए
दूसरे दिन की कुल दुरी = 140 + 34 + 34 + 47 = 255 km

तीसरा दिन

196 km - ढाबे से चंडीगढ़ (रइया-ब्यास-जालंधर-फगवाड़ा-नवांशहर-रोपड़-कुराली-चंडीगढ़)- 10:30 घण्टे --- खर्च = 20  (रुपए जालंधर में चाय,बन,मट्ठी) + 40 रुपए (कुलचे वाले के पास पेट भर के उबले आलू खाए)

यात्रा की कुल दूरी = 100 + 255 + 196 = 551 km
(अमृतसर में साइकिल स्टैंड की खोज में भटकना, शहर के अंदर ट्रैफिक से बचने के लिए साइकिल उठा कर तय की गई दूरी, पैदल तय किया गया रास्ता/भ्रमण शामिल नहीं)

कुल दूरी = 550 km
कुल समय = 50.5 घण्टे (30 दिसम्बर दोपहर 1 बजे से 1 जनवरी 2017 दोपहर 3:30 बजे तक
साइकिल चलाने का कुल समय = 28 घण्टे
कुल खर्च = 680 रुपए  














Monday, 9 January 2017

जलियाँवाला बाग़ अमृतसर (चण्डीगढ़-वाघा-चण्डीगढ़ साइकिल यात्रा भाग-4)



एक ही नाम लिखा है
शहीद-ऐ-आज़म
राम मोहम्मद सिंह आज़ाद का
जिसका जिगरा था फौलाद का
गोली लगी हर ईंट पर
हर ज़र्रे पर
जलियांवाले बाग़ के

किताबों का झूठ
आज मेरे एहसास ने
नामंज़ूर कर दिया
सच जो देखा
जालियांवाले बाग़ का
जो एकता अंग्रेज़ों से
देखी न गई
फिर सहारा लेकर धर्म का
फूट हर सिम्त डाली गई
लिया बदला जिसने
इस क्रूर अत्याचार का 
एक ही नाम गूँज रहा ज़ेहन में
शहीद-ऐ-आज़म
राम मोहम्मद सिंह आज़ाद का
जिसका जिगरा था फौलाद का

21 साल का सब्र
किया अपनी प्रतिज्ञा पूरी करने को
देखो कितना धीरज धरा
लक्ष्य प्राप्त करने को

वो डायर जो कायर निकला
कर रहा तौहीन उसकी
शब्द हर मेरी बात का
आज चमक रहा
जो सूरज आज़ादी का
जो देखा हम सबने
संघर्ष भूला लेकिन
हर देशप्रेमी ज़ात का
वो आज़ादी के दीवाने
भी क्या खूब मतवाले थे
सूली चढ़े हंस कर सब
आज क्यों भूले हम उनको
और अर्थ
उनकी हर बात का


ऐ अंग्रेज़ो
बैसाखी के दिन
जो तुमने
कत्लेआम था किया
हैवानियत की हदों को
जो तुमने पार था किया
चलायी गोली तुमने निहत्थे लोगों पे
न जाने कितनी बार तुमने
इंसानियत को शर्मसार था किया

वो जन्मा नहीं कोख़ से
उसी बाग़ में था पैदा हुआ
जिस समय तुमने ये
हत्याकाण्ड था किया
तप उसने
21 साल तक था किया
फिर वर उसे मिला वो
जिससे राक्षस डायर का
संहार उसने था किया



की खड़ा हूँ आज
मैं उसी कौमी एकता की दीवार के सामने
छल्ली जिसका सीना
अंग्रेज़ी सरकार ने था किया
पर
सर ऊँचा है मेरा
की
जियो शहीद-ऐ-आज़म उधम सिंह
की तुमने काम ऐसा किया
हर भारतीय का सिर
ऊँचा उठा दिया
ग़र मिलती आज़ादी
और डायर जिन्दा रहता
कैसे मैं बात अपनी यह
फिर इतने फ़क्र से कहता
की तुमने हमारे कंधे से
तोहमत का भार उतार दिया
जिओ शहीद-ऐ-आज़म उधम सिंह
की तुमने काम ऐसा किया
देश का
गुलाम आत्मसम्मान जगा दिया
अपाहिज़ जो ज़ेहन था उसको
सशक्त बना दिया
जिओ शहीद-ऐ-आज़म उधम सिंह
की तुमने काम ऐसा किया
हर भारतीय का सिर
ऊँचा उठा दिया

क्या एक भी निशाँ मिला ?
गोली का
किसी की भी पीठ पर
तुमने गोली चलाई चुपके से
पर सामना छाती ने ही किया
तुम्हारी हर चाल का
और तुम कहते हो की गोरे पवित्र हैं
हर हिंदुस्तानी आज भी
गवाह तुम्हारे हर विश्वासघात का
समझ लेना ना नफ़रत का पुजारी
तुम मुझे
हर हिंदुस्तानी
दीवाना है इंसानियत ज़ात का
तभी ज़िंदा बच निकले तुम
सही सलामत बीवी बच्चों समेत
करुणा बस्ती यहाँ
दिल ये पाक-साफ़ इंसान का
द्वेष मेरे दिल में कोई
ये मत समझना
बदला ले रही कलम
उसी 200 साल का

की इंसानियत का मैं पुजारी
मेरा देश पुजारी
पर सवाल कर रही हर रूह वो
निवाला छीन कर खाया
जिस मज़बूर हर इंसान का
मैं नहीं जानता की
ख़ज़ाने कितने
तुम्हारे भर गए
चोंच से तिनका तक लूटा
चिड़िया-ए-हिन्दोस्तान का
और जो कुआँ था
बेकसूर लाशों से भर गया
उसका पानी आज भी
मीठा ही होगा
यह हर शब्द कहता
आज मेरी बात का
खून जो लावा बन
आज रागों में मेरी बह रहा
एहसानमंद हूँ उस
देशप्रेमी ज़ात का

मेरे रहनुमा मुझे इंसानियत
की हदों में रख
कोई धर्म का सौदागर
गलत मतलब ना निकल दे
मेरी किसी बात का