Tuesday 5 July 2016

"मणिमहेश" ,"द चम्बा कैलाश" भाग-2

उचेयाँ कैलाशा शिव मेरा बसदा 

कुन वो ग्लांदा गौरां नी बसदी

ऊँचे कैलाशों में मेरे भोलेनाथ बस्तें हैं

और कौन कहता है कि उनकी प्रकृति (पार्वती जी) पहाड़ों में नहीं बस्तीं |

भोलेनाथ और पार्वती जी के संवाद पे केंद्रित यह पहाड़ी लोक गीत की पंक्तियां इस बात को तो बिलकुल स्पष्ट कर देतीं हैं कि प्रभु और उनकी प्रकृति दोनों अभिन्न हैं इसका एक उदाहरण गौरीकुंड के पास पत्थर पर उगे फूलों का भी दिया जा सकता है कि कितना भी बीहड़ क्यों न हो जीवन (प्रकृति) हर जगह पनपता है |
दूसरा उदाहरण उन खास शख्सियत का है जिसका जिक्र भाग 1 में किया था | गुरूजी तो पहाड़ों में वैसे ही घूमते रहते हैं जैसे संत महात्मा मोक्ष की खोज में | जिस पहाड़ के बारे में किसी ने सुना भी नहीं होगा वह भी उन्होंने 3 बार तो चढ़ा ही होगा | शायद उनकी इसी तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान ने उनको वैसे ही धर्मपत्नी प्रदान की है | दोनों मियां-बीवी बीहड़ों में ऐसे घूमते हैं जैसे अपने घर के आँगन में टहल रहे हों |
गुरु जी ने उनकी पत्नी श्रीमती डा० कमल प्रीत जी के साथ चलने के बारे में पहले ही बता रखा था | द्रमण में दोनों से मिलना हुआ | पूरी यात्रा के दौरान डॉक्टर साहिबा के माथे पे थकान से शिकन तक नहीं आई, कभी गुरु जी के आगे कभी पीछे डंडा पकडे मुस्कुराती हुईं चलती रहीं | सख्तजान पहाड़ी लड़की के आगे तो हिमालय भी नतमस्तक है |
यही बात ऊपर लिखे लोकगीत के स्थायी अन्तरे से भी साबित हो जाती है, जो की इस प्रकार है :
हुंण वो कताईं जो नसदा वो धुडुआ
बापुएं लड तेरे ओ लायी
हे भोलेनाथ अब कहाँ भागते हो
मेरे पिताजी ने मुझे आपके साथ जन्म-जन्मांतर के बंधन में बांध दिया है |( -पार्वती जी )
चलिए अब यात्रा पे आते हैं | मणिमहेश पहुँच कर एकांत में भोलेनाथ जी के आगोश में बैठा मैं गुरूजी और साथियों कि फ़िक्र कर रहा था | मणिमहेश में घंटा भर इंतज़ार करके मैंने नीचे जाने का निर्णय किया | सोचा कि सही रस्ते से नीचे जाऊंगा तो गुरूजी कहीं न कहीं मिल ही जायेंगे | खैर मैंने नीचे उतरना शुरू किया |


मणिमहेश मंदिर

मंदिर से नीचे गौरीकुंड तक तो नाक कि सेध में ही उतर गया | गौरीकुंड से थोड़ा आगे एक टेंट लगा था | वहां सिर्फ एक आदमी था; उससे साथियों के बारे में पूछा मगर कोई सकारात्मक जानकारी नहीं मिली | उसने मुझे रास्ते के बारे में यह जानकारी दी कि, आगे जा के दो रास्ते हो जाएंगे एक ऊपर कि तरफ ग्लेशियर से हो के जाता है जो कि अभी बंद है और दूसरा नीचे कि तरफ भैरो घाटी से | उसे अलविदा कह कर मैं चल पड़ा|

जहाँ दोनों रास्ते अलग हुए वहां नीचे कि ओर हो गया | उसी रास्ते  पे बढ़ते बढ़ते काफी नीचे आ गया | धनछो खड़ कि आवाज़ दहाड़ कि तरह सुनाई दे रही थी | वो इलाका नीचे होने के कारण, अँधेरा और धुंध भरा था | मैं एक चट्टान पे जा के रुक गया, आगे रास्ता नहीं था, या शायद; था भी तो मुझे दिखाई नहीं दे रहा था| मैं तो चट्टान के छोर पे खड़ा था और आगे कुछ भी नहीं, सोच रहा था कि अगर एक कदम भी आगे बढ़ा तो नीचे खाई में न गिर जाऊँ | संकरी सी जगह पर कुछ देर सोच विचार करके मैंने पीछे हट के ग्लेशियर वाली तरफ से जाने का निश्चय किया|वापिस ऊपर चढ़ के ग्लेशियर वाले रास्ते पे चलने लगा |

ग्लेशियर तक पहुँच कर तो जान हलक में आ गई|करीब 100m लम्बी बर्फ़ की पट्टी थी; तीखी ढलान और बर्फ़ भी भुरभुरी लेकिन परत काफी मोटी थी |मैंने हाथों में दो नुकीले पत्थर पकड़ लिए जिसका इस्तेमाल कुल्हाड़ी की तरह करते हुए मैं पकड़ बनता | पैरों से बर्फ़ कुरेद कुरेद के एक एक कदम बढ़ा के आगे बढ़ता | उस समय तो वो कहावत कि, "दूसरा पांव तब उठाओ जब पहला अच्छे से टिक जाए " मेरा जीवनमूलाधार थी |

The tiny black spot you see towards left, between the glacier and blue tent is Sourabh. While we approached Sundrasi, he was coming back and was trying to negotiate his way through this tricky snow slope.गुरूजी द्वारा लिया गया ग्लेशियर के साथ मेरा चित्र |


"जल्दबाजी मत करना, अच्छे से पकड़ बनाना और धीरे धीरे आगे बढ़ना" मन ही मन यह मंत्र दोहरा रहा था | जानता था, एक गलत कदम और मैं धनछो खड़ में | ग्लेशियर को पार करते समय सिर्फ सामने कि तरफ देखता रहा शायद नीचे देखता तो डगमगा के अस्थिर हो जाता | धीरे धीरे मैंने ग्लेशियर को पार किया | उस पार पहुँच कर जान में जान आई |
पार पहुँचने तक मेरी उँगलियाँ ठण्ड से जम चुकीं थीं | फूंक मार मार के उँगलियाँ थोड़ी गरम कीं और खून का दौरा फिर से शुरू हुआ तो उस समय जो पीड़ा कि अनुभूति हुई वो कुछ ऐसे थी जैसे किसी ने उँगलियों के छोर पे सुइयां चुभो दी हों | कुछ देर बाद सब ठीक हो गया |
मैंने नीचे उतरना जरी रखा | कुछ घुमावदार मोड़ों के बाद मुझे 4 लोग दिखाई दिए; दूर से ही जान गया था कि मेरा ही इन्तजार कर रहे हैं |उनको देखते ही मैंने दौड़ लगा दी जैसे बिछड़ा बच्चा अपनी माँ से मिलने को दैडता है | फिर से मिल कर और सबको सुरक्षित देख कर मैं खुश था और बाकि सभी मुझे देख कर |
गुरूजी और साथी सही रास्ते से चढ़ते हुए हड़सर से धनछो और फिर धनछो से सुंदरसी तक पहुँच कर अपनी पहले दिन की चढ़ाई समाप्त कर चुके थे |


सुंदरासी में एक टेंट में डेरा जम चुका था | मैंने भी अपना सामान वहां रखा और बिस्तर पे लेट गया | रात को पहाड़ी आलू की सब्जी और रोटी खा के हम सब लेट गए |
सुबह करीब 6:30 बजे फिर से मणिमहेश तक जाने का सफर शुरू किया | कुछ जरुरी सामान लेके और अपने बैग वगैरा सुंदरासी टेंट में छोड़ हम भोलेनाथ के दर्शन करने निकल पड़े |
कल शाम को ग्लेशियर पार करते करते मैंने यह कसम खा ली थी कि आज के बाद हमेशा सबसे पीछे चलूँगा अतः मैं सबसे पीछे चलने लगा | गुरूजी सही रास्ते से ले के जा रहे थे | चलते चलते चट्टानों के बीच से रास्ता आया और चढ़ने के लिए पैरों के साथ साथ हाथों का भी प्रयोग करना पड़ा | वह चट्टान थोड़ी उभरी हुई थी और उस जगह पे धनछो खड़ की आवाज़ सुन के समझ गया की यह वही जगह है जहाँ से मैं कल वापिस मुड़ गया था |
कुछ और दूर चलने पे गुरूजी हर हर महादेव शिवशम्भु कहते हुए दौड़े और डाक्टर साहिबा जी भी उनसे आगे निकलने की कोशिश में दौड़ीं | जब तक मुझे कुछ समझ आता मुझे भी सामने पहाड़ की ओट से धीरे धीरे सामने आते चम्बा कैलाश के दर्शन हो गए | वो दोनों पहले दर्शन करने की होड़ में भागे थे |

पहाड़ों की ओट से सामने आता " द ग्रेट चम्बा कैलाश "

कुछ ही समय बाद हम गौरीकुंड पहुँच गए | वहां गुरूजी ने हमें कमल कुंड और कुगति से आने वाले परिक्रमा मार्ग के बारे में जानकारी दी, जिसका उन्हें अच्छा खासा अनुभव था  |
गौरीकुंड में उगे हुए फूलों ने स्वत: ही हमें आकर्षित कर लिया | कल इन्हीं फूलों से प्रेरणा पा कर मैं ऊपर तक चढ़ गया था | डॉक्टर साहिबा ने वहां उगे सभी फूलों के नाम उँगलियों पे गिना दिए | कौनसा फूल कितनी ऊंचाई और किस परिवेश में उगता है यह जानकारी भी दी |
खैर फूलों को अलविदा कह के हमने चढ़ना जरी रखा | चौधरी साहब सबसे आगे चल रहे थे उनके पीछे शुभम जी और फिर गुरूजी और उनकी पत्नी और आखिर में मैं |
तीनो आगे चले गए , गुरूजी और मैं पीछे रह गए | इक्तिफाक कहिये या पत्थर की समतल सतह का सम्मोहन; गुरूजी रेस्ट करने को उसी पत्थर पे बैठ गए जिसपे पिछले कल मैं घुटनो में सर दे के बैठ गया था | खैर वो जल्दी ही उठ खड़े हुए, मेरी तरह पौना घंटा नहीं बैठे | लेकिन उसके बाद उन्होंने सीधे पहाड़ चढ़ना शुरू कर दिया | मैं पीछे पीछे नाक की सेध वाली कहानी याद करता हुआ चलता रहा |
ऊपर पहुँच कर सबको अपनी अपनी मेहनत का फल मिल गया | 8:30 बजे हम मणिमहेश के दरबार में अपनी हाज़री लगा चुके थे |
शुभम जी और मैं सुंदरसी से ही नहाने का प्रोग्राम बना के आये थे|भोलेनाथ का नाम ले के दोनों ने बारी बारी डुबकी लगा दी|गुरूजी ने भी डुबकी लगाई और डॉक्टर साहिबा जी ने 3 बार दण्डवत प्रणाम करके अपनी यात्रा सफल की | पूजापाठ और परिक्रमा करने के बाद हम सामने के ऊँचे टीले पे चढ़ गए | कुछ देर फोटो खींचने के बाद नीचे टेंट में चाय पीने आ गए  |


पहाड़ी से लिया गया चित्र


सामने चम्बा कैलाश , दायीं (right) ओर मंदिर और बाईं (left) ओर कैंप तथा दुकाने और मध्य में पवित्र मणिमहेश डल झील |
अब बारी नीचे उतरने की थी |11 बजे नीचे उतरना शुरू किया |
सबने बांस के डंडे ले लिए और नीचे उतरना शुरू कर दिया | मणिमहेश से गौरीकुंड और गौरीकुंड से सुंदरासी कब पहुँच गए पता ही नहीं चला |
लगभग 1 बजे सुंदरासी पहुंच के थोड़ी देर रेस्ट करके और चाय पीने के बाद हमने अपना सामान समेटा और नीचे धनछो की ओर चल पड़े |
सुंदरसी से धनछो मेरे लिए नया रास्ता था; कल तो मैं दूसरी तरफ से गया था |
रास्ते के बीच में एक जगह आई, जिसे शिवजी का घराट (पनचक्की) कहते हैं | पहाड़ के इर्द गिर्द हवा घूमती हुई इस तरह की आवाज़ करती है कि मनो घराट (पनचक्की) चल रहा हो  | उसी के नीचे डेरा जमाए बैठे थे बाबा जी | बाबा जी सर्दियों के मौसम में भी बर्फ से ढके मणिमहेश के पहाड़ में बनी एक गुफा में तपस्या करने के लिए सिद्ध माने जाते हैं | गुरूजी को तो उन्होंने देखते ही पहचान लिया | बाबा जी से आज्ञा लेकर हम धनछो कि ओर चल पड़े | कुछ ही समय बाद धनछो पहुंचे और वहां से हड़सर के लिए नीचे उतरने लगे |
धनछो से हड़सर तक कि उतराई उतरना मुश्किल था | घुटनों पर ज़्यदा ही दवाब पड़ रहा था | कभी कभी तो लगता कि बस अब घुटना टूट के अलग हो जाएगा |
हमारा तो बुरा हाल हो रहा था बस एक शुभम जी ही थे जो सुंदरासी से लीड करते हुए ऐसे उतर रहे थे मानो उनके लिए यह पथरीला चट्टानों भरा रास्ता नेशनल हाईवे हो | उनकी महीना भर पहले से शुरू हुई यात्रा की तैयारी रंग ला रही थीं | वो रोज चंडीगढ़ के 26 सेक्टर से भागते हुए 12 सेक्टर में मेरे कॉलेज तक आते थे| भागते हुए वो सबसे पहले हड़सर पहुँच गए | हम सब लगभग 4:30 बजे हड़सर पहुँच गए |
हमरी किस्मत अच्छी थी ; जैसे ही हम हड़सर पहुंचे भरमौर के लिए गाड़ी मिल गई |
करीब 5 बजे हम भरमौर पहुंचे | भरमौर पहुँचते ही हम होटल भरमौर व्यू में रुके और नितिन जी और अतुल जी ने हमारे लिए स्पेशल खाना बनवा दिया |
खाना खाने के बाद शरीर में फिर से नयी जान आ गई | नितिन जी और अतुल जी से विदा लेकर हम चम्बा के लिए निकल पड़े | चम्बा में फिर से आदित्य जी के पास डेरा जमा दिया | इस बार भी श्रीमान आदित्य जी ने हमारे पहुँचने से पूर्व ही खाना बना दिया था | श्रीमान आदित्य जी जैसे सज्जन पुरुषों की घोर कमी है इस देश में, तभी तो देश का यह हाल हो गया है|
रात श्रीमान आदित्य जी के पास बिताने के बाद सुबह गुरूजी कि गाडी से हम चम्बा से जसूर तक आये | जसूर से गुरूजी उनके ससुराल ज्वाली चले गए , शुभम जी और चौधरी जी पठानकोट की बस में बैठ गए और फिर पठानकोट से वापिस चंडीगढ़ चले गए |
मेरा वापिस चंडीगढ़ जाने का कोई मन नहीं था | मैं तो घर जाना चाहता था |
मैं जसूर से इंदौरा की बस में बैठ गया और अपने गांव इंदपुर में उतर गया; भला आम के मौसम में पेड़ों पे लगे मीठे आम छोड़ के चंडीगढ़ की चिक-चिक चां-चां में सर खपाने कौन जाए |
     
 16 जून रात 11:30 बजे चंडीगढ़ से शुरू हुई मणिमहेश यात्रा 20 जून को दोपहर 1 बजे घर (इंदपुर, इंदौरा)  पहुँच के ख़त्म हुई |

इस यात्रा का पिछला भाग यहाँ पढ़ें

3 comments:

  1. बहुत सुन्दर वर्णन और इतनी उत्कृष्ट हिंदी का प्रयोग किया की शब्दकोश का निरंतर प्रयोग करना पढ़ा ।

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  2. बहुत सुन्दर वर्णन और इतनी उत्कृष्ट हिंदी का प्रयोग किया की शब्दकोश का निरंतर प्रयोग करना पढ़ा ।

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  3. सावन के प्रत्येक सोमवार को भोलेनाथ को खीर का भोग लगाना बहुत ही शुभ माना जाता है। आज सावन का पहला सोमवार है, आज आप भगवान शिव को खीर का भोग अवश्य लगाएं। पढ़े और भी Hindi News

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