Sunday, 3 July 2016

"मणिमहेश" - "द चम्बा कैलाश यात्रा" भाग-1

प्र०:- पाई बड़े दिनां दे दुसे नई ?
कुथु गयो थे ? 
(भाई बड़े दिनों से दिखाई नहीं दिए कहाँ गए थे )
उ०:- पाड़ | (पहाड़)
प्र०:- पाड़ बोले ताँ क्या ? (पहाड़; क्या मतलब)
उ०:- भरमौर |
प्र०:- कजो गयो थे ? (क्यों गए थे )
उ०:- जातरा की जांदे आसां हर साल मणिमहेश | (मणिमहेश यात्रा करने हम हर साल जाते हैं )
मेरे गांव इंदपुर में गद्दी भाइयों की परमानेंट सेटलमेंट है | सर्दियों में अक्सर इनके शरीक (रिश्तेदार) भेड़ बकरियों के साथ इंदपुर इंदौरा क्षेत्र में डेरा जमाते हैं |
ऊपर लिखी बातचीत एक परमानेंट सेटल्ड गद्दी दोस्त और मेरे बीच कि है; जो की अगस्त के महीने में गायब हो गया था | खैर बात तो बहुत पुरानी है लेकिन जब गुरूजी द्वारा मणिमहेश जाने कि इच्छा जाहिर कि गई तो मुझे यह वार्तालाप याद आ गया |
16 जून को शाम शुभम जी का फ़ोन आया और उन्होंने बताया की सामान बाँध लो हम मणिमहेश चल रहे हैं | वैसे मणिमहेश के लिए निकलने का प्रोग्राम 17 जून का था लेकिन गुरुजी ने किसी कारणवश प्रोग्राम पुर्वस्थागित कर दिया | शुभम जी जो की 17 जून की टिकट पहले ही बुक करके बैठे थे ; प्रोग्राम पुर्वस्थागित होने के कारण टेंशन में आ गए | खैर सारे समीकरण जोड़ तोड़ के देख लेने के बाद मैंने शुभम जी और हमारे एक और दोस्त अमन (चौधरी साहब) को अपने घर (इंदपुर) चलने के लिए राज़ी कर लिया |
11:30 बजे हम चंडीगढ़ के सेक्टर के बस स्टैंड पे पहुंचे |12:40 बस चली और पूरे रास्ते हमें ड्राइवर के खौफनाक किस्से (शुभम जी के ब्लॉग पे विस्तार में पढ़ें ) सुनने के बाद नींद नहीं आई |
17 जून की सुबह 5:30 बजे हम सब मेरे घर पे थे | थोड़ा सोने के बाद करीब 11 बजे हम जसूर के लिए निकले | गुरूजी जो की मण्डी से आ रहे थे हमें द्रमण में मिलने वाले थे | वैसे मैं गुरूजी के संपर्क में था लेकिन फिर भी हम सब करीब 1:30 बजे द्रमण पहुँच गए | वैसे गुरूजी ने 3 बजे तक आने को कहा था लेकिन सब कुछ सही रहा (जैसा की पहाड़ी सफर में अक्सर नहीं होता) और हम समय से पूर्व पहुँच गए |
घर से लाये आम खाने और चाय पीने के बाद हम द्रमण चौंक पे बैठ गए | गुरूजी के आने के बाद हम सब उनकी कार में बैठ गए और पहाड़ी गाने सुनते हुए काँगड़ा जिले से चम्बा जिले की वादियों में दाखिल हुए |
खैर चम्बा पहुँचते-पहुँचते अँधेरा घिर आया | गुरूजी चम्बा से भरमौर रात में नहीं जाना चाहते थे | गुरूजी ने भरमौर जाने की बजाय अपने अज़ीज़ मित्र श्रीमान आदित्य भरद्वाज जी के यहाँ रात बिताने का निर्णय लिया और यह तय हुआ की सुबह वहां से लोकल गाड़ी करके भरमौर पहुंचेंगे | हम सब उनसे सहमत थे |

NHPC में कार्यरत श्रीमान आदित्य भारद्वाज जी तो जैसे इस कलयुग में सतयुग के अवतार हैं | हमारे पहुँचने से पहले ही हमारे लिए स्वादिष्ट खाना बना चुके थे | भोजन करने के उपरांत हमें चम्बे का चुगान दिखाने ले गए; वहां पहुँचते ही आइसक्रीम खिला दी | उनका अतिथि सेवाभाव तो उत्कृष्ठ, उच्च कोटी का है | सुबह चम्बा से भरमौर जाने के लिए गाड़ी का प्रबंध भी कर दिया | बिना बोले ही उन्होंने हमारी खूब सेवा की और हमारी सारी परेशानियों का हल कर दिया |
अगर पूरे भारतवर्ष में ऐसे लोग रहें तो भारतवर्ष में सत्य, अहिंसा और धर्म का डेरा फिर से लग  जाए |

सुबह श्रीमान आदित्य जी से आज्ञा लेकर हम 6:15 बजे भरमौर के लिए निकले |8:30 बजे भरमौर पहुंचे और गुरूजी ने फिर से अपने एक और मित्र नितिन जी के होटल भरमौर व्यू में हमें ठहरा दिया | नितिन जी और उनके बड़े भाई अतुल जी ने भी हमारा खूब सेवा सत्कार किया | उनसे बातचीत करके पता चला की वो छतरोली गांव (जसूर के पास ) से हैं | मेरी दो बहनों के ससुराल भी वहीँ हैं तो मैंने भी उनसे जान पहचान निकल ली |
खैर बातों बातों में और नाश्ता करते करते 10:30 बज गए | नितिन जी ने भरमौर से हड़सर जाने के लिए गाड़ी का प्रबंध कर दिया और हम 11 बजे हड़सर के लिए निकल गए |
हड़सर से पैदल यात्रा 11:40 बजे शुरू हुई |हम तीनों के दिमाग में यही चल रहा था की :


आज हम पहाड़ लाँघेंगे

उस पार की दुनिया देखेंगे !

आज हम पहाड़ लाँघॆंगे

उस पार की हलचल सुनेंगे !

आज हम पहाड़ लाँघेंगे

उस पार की हवाएं सूँघेंगे ! 

आज हम पहाड़ लाँघेंगे

उस पार की धूप तापेंगे !

 -अजेय जी की कविता से 

धनछौ खड़ के साथ साथ यात्रा का रास्ता दाईं ओर किनारे किनारे चल रहा था | खड़ की आवाज और चलते क़दमों की आहट ताल में ताल मिला रही थी | शुरुआत में ही गुरूजी ने मुझे आगे चलने का आदेश दिया ताकि बाकि भी सही रफ़्तार से चलते रहें | अमन जी सबसे आगे चल रहे थे; जब मैंने उन्हें ओवरटेक किया तो उन्होंने पानी माँगा और मैंने अपनी बोतल उनको पकड़ा दी |
उफनती धनछौ खड़ पे बने लकड़ी और लोहे के गर्डर के काम चलाऊ पुल से खड़ को पार करते करते एडवेंचर का कीड़ा डर के मारे दिमाग के किसी कोने में दुबक कर बैठ गया था |
मैं आगे चलता चलता बहुत ही आगे निकल आया | पहला पड़ाव करीब 7 km बाद धनछौ कैंपसाइट आया | धनछौ पहुँचने तक मैं पूरा वार्मडअप हो चूका था | इसलिए चलते रहने का निश्चय किया |


धनछौ कैंपसाइट और दोनों ओर के रास्ते
थोड़ी और दूर जाने पर दो रास्ते अलग हो गए | एक रास्ता फिर से एक पुल से होते हुए खड़ के दूसरी ओर जाता था जिस ओर शुरआत से चल रहे थे और दूसरा रास्ता पहाड़ों की ओर | एक दूकान वाले से पूछा की सही और छोटा रास्ता कौनसा है | उसने जवाब दिया दोनों बराबर हैं 6 km  |
मैं पहली बार जा रहा था तो सही रास्ता नहीं जनता था |
विनाशकाले: विपरीत बुद्धि:
दुकान वाले का भरोसा करके मैंने सोचा 6 km ही तो है | जहाँ 7 km चढ़ गया वहां 6 km भी चढ़ ही जाऊंगा चाहे खड़ा पहाड़ ही क्यों न आ जाए | यह सोच हावी होने की देर ही थी कि एडवेंचर का कीड़ा फिर से निकल आया और मैं फिर से एक काम चलाऊ पुल पार करके धनछौ खड़ के उसी ओर चलने लगा जिस ओर से शुरुआत की थी |
रास्ता अब और पथरीला होता जा रहा था | मुझे एहसास हो गया था की मैं गलत रास्ते पे चल पड़ा हूँ | खैर दूसरा रास्ता भी पहाड़ी की इस ओर से साफ़ दिख रहा था; तो यह सोच के की जब गुरूजी और साथी उस ओर चलेंगे तो आसानी से दिख जाएंगे, मैं चलता रहा |

खैर थोड़ी दूर जा के फिर से दो रास्ते अलग हो गए ; एक धनछौ खड़ की तरफ नीचे की ओर और दूसरा ऊपर की तरफ | मैं खुश था सोचा की अब नीचे जा के दूसरी तरफ चला जाऊंगा; भूल सुधार के सही रास्ते पे और गुरूजी का इंतजार करूँगा | सोचा धनछौ खड़, जो ऊपर से छोटा सा नाला प्रतीत हो रहीं थी को; अगर पुल न हुआ तो छलांग मार कर पार कर लूंगा | मेरे इस ओवरकॉन्फिडेंस को कुदरत ने मसल के रख दिया |
मेरी ख़ुशी नीचे जाते ही खत्म हो गई | खड़ के दोनों और पुल के पिलर तो थे लेकिन पुल नहीं था |


वो स्थान जहां पुल होना चाहिए था

 और तो और जिस लोहे के गर्डर से पुल बनाया जाना था वह भी दूसरी ओर पड़ा था | लेकिन मैं भी पार करने के इरादे से ही नीचे आया था | मैंने देखा की ऊपर की ओर बर्फ जमी है और खड़ उसके नीचे से बह रही है | पहले पहाड़ के ऊपर चढ़के चट्टानों को बाईपास करते हुए फिर नीचे आकर मैं बर्फ तक तो पहुँच गया लेकिन बर्फ बहुत ढीली थी | ऊपर से पार करने लायक तो बिलकुल नहीं | धनछौ खड़ की आवाज़ भी डरा रही थी मनो भाग जाने को कह रही हो |


ढीली बर्फ जिसके नीचे से पानी बह रहा है |

मैं फिर से ऊपर चढ़ गया और पहाड़ के ऊपर वाले रास्ते पे ही बढ़ता रहा |
पहाड़ कि दूसरी तरफ गुरूजी और साथियों के नज़र आने कि हसरत लिए, मैँ चलता रहा | कभी कभी दिमाग में यह ख्याल आ जाता कि फिर से नीचे जा के धनछौ खड़ पार करने की कोशिश करूँ लेकिन सबक तो मिल चुका था |
हवा में ऊंचाई के कारण आई ऑक्सीजन कि कमी महसूस हो रही थी और थकान भी होने लगी थी | थोड़ी और आगे चलने पे ग्लेशियर से आते पानी का सोता मिला | पानी पीने के लिए हाथ बढ़ाया तो ठण्ड के मारे उँगलियाँ जमने लगीं | तभी एक जुगाड़ दिमाग में आया और मैंने अपने पास रखी एक स्ट्रॉ से पानी पिया |


पानी पीने का जुगाड़ |
आधा घंटा रेस्ट करने के बाद फिर से चल पड़ा | कुछ दूर और आगे बढ़ने पर दो लोग मिले | मैं कुछ बोलता उससे पहले उन्होंने ही पूछ लिया, "अकेले हो" | मैंने हाँ मैं सर हिला दिया | बातचीत करने पर पता चला कि यह लोग खच्चर चलाते हैं और जिस रूट पे मैं चल रहा था वो खच्च्रों के लिए रिज़र्व  है | वो तो इस रास्ते का हाल जानने के लिए मुआयना करने आये थे | मुझे आगे गिरते हुए ढीले पथरों से सावधान रहने के लिए सचेत करके वो अपने रास्ते चले गए |
जिन पथरों के लिए उन्होंने मुझे सचेत किया था उनका नजारा तो डरावना था |

ढ़ीले पत्थरों का इलाका जो की कुछ ही देर पहले अस्थिर होके गिरे थे | 

पत्थरों को पार करके मैं बर्फ से ढके पहाड़ों में पहुंचा | रास्ता ढूँढना कठिन था लेकिन रास्ते में मिले उन दो व्यक्तियों के पदचिन्हों पे पाओं रख रख के बर्फीला इलाका पार किया |


बर्फीले इलाके के बाद तो जैसे जन्नत थी |
फूलों से ढका हुआ पहाड़ का हिस्सा मानो सर्दियों से जग कर उठ बैठा हो | पत्थरों में उगे फूल देख कर इतनी प्रेरणा तो मिली कि अगर पत्थर पे फूल उग सकते हैं तो मैं तो जीता जागता इंसान हूँ, "मैं क्या नहीं कर सकता" |





"गौरी कुंड" फूलों की वादियां और कैंपसाइट |

फूलों कि वादी पार करने के बाद मैं उस स्थान पे आ पहुंचा जहाँ धनछो खड़ के दोनों ओर के दोनों रास्ते मिलते हैं,"गौरी कुंड" | यह इलाका मैदानी था |  कुछ और दूर जाने के बाद ऊपर एक पहाड़ी पे टेंट और झंडे लगे दिख रहे थे | उनको देखते ही मैं समझ गया कि मंजिल यही है | लेकिन ऑक्सीजन कि कमी का मारा मैं ; मुझे वहां तक पहुंचना मुश्किल ही लग रहा था |
थोड़ी देर चलता और बहुत देर घुटनों में सर दे के बैठ जाता | ऐसे तो मैं रात तक नहीं पहुँचूँगा यही सोचते सोचते एक तरकीब दिमाग में आई; अगर हवा में ऑक्सीजन कम है तो साँस लेने कि गति को बढ़ा कर उस कमी कि कुछ तो भरपाई होगी | पहले जहाँ में 2 sec में एक बार सांस ले रहा था, वहीँ अब मैंने 3 बार साँस लेना शुरू कर दिया |
खैर इसका फायदा भी कुछ ही देर रहता और मैं फिर थक जाता और बैठ जाता | अब रेस्ट के समय भी तेज साँस लेने का सिलसिला जरी रखा | पहाड़ों पे बनी टेढ़ी मेढ़ी पगडण्डी को छोड़ अब मैं सीधे नाक कि सेध में ऊपर लगे टेंट कि और बढ़ने लगा | इससे थकान तो हो रही थी लेकिन थकने तक उतना ऊपर तो चढ़ ही जाता जितना दूर पगडण्डी पर चल रहा था |
"नाक कि सेध में चलना", यह वाक्य किसी कहानी में सुना था पर शायद ऑक्सीजन कि कमी के कारण वो कहानी याद नहीं आ रही थी | कहानी याद करने के चक्कर ने चलो मेरे दिमाग को तो उलझाए रखा और जैसे तैसे में ऊपर पहुँच गया |
ऊपर गिनती के ही लोग थे | टेंट पार करके जब झील तक पहुंचा तो वो नज़ारा तो दर्शनीय था; मानो स्वर्ग धरती पे आ गया हो |
 ऊपर ठण्ड काफी थी और शाम के 5 भी बज चुके थे | कुछ देर तो वहां ऐसे ही बैठा रहा और तभी जेहन में गुरुदेव टैगोर जी कि कविता आ गयी जो मेरे हालातों पे बिलकुल ठीक बैठती थी |
बादल पर बादल छा गए, अँधेरा घिर आया
ऐसे में मुझे अपने द्वार के पास,
अकेले क्यों बैठा दिया?
तरह-तरह के काम-काज से भरे दिनों में मैं
विविध लोगों में फंसा रहता हूँ |
आज तो मुझे बस तेरा ही आसरा है |
ऐसे में मुझे अपने द्वार के पास
अकेले क्यों बैठा दिया ?
तूने यदि आज भी अपने दर्शन न दिए.
मेरी उपेक्षा कर दी , तो यह बरसात की बेला कैसे कटेगी !
दूर तक अपलक दृष्टि बिछाये, मैं उदास बैठा हूँ |
मेरा मन हवा के साथ व्याकुल हाहाकार करता भटक रहा है |
मुझे द्वार के पास अकेले क्यों बैठा दिया?

मैंने जूते उतारे और मंदिर में माथा टेका | नंगे पाओं परिक्रमा कि और जब वापिस अपने सामान और जूते के पास पहुंचा तो मानो सवयं शिव शंभू ने मन में आ के कहा हो, "भक्त स्नान नहीं करोगे" और मैं स्नान करने के लिए उठ खड़ा हुआ |
झील की परिक्रमा
झील में तैरती बर्फ देख कर पानी में उतरना तो दुःस्वप्न के सामान लग रहा था पर मैं भी मन बना चुका था कि बिना नहाए नहीं जाऊंगा | कपडे उतारे और पानी में जा के खड़ा हो गया | थोड़ा पानी ले के शरीर पे मल लिया और शिवशंकर का नाम लेके डुबकी लगा दी |
ठन्डे पानी ने तो जैसे थकान को खींच लिया था या फिर कोई दैवीय शक्ति थी उस पानी में | नहाने के बाद फिर से एकदम तरोताज़ा हो के गुरु जी कि याद आई | इतनी देर जिस चिंता को मैं दबता रहा अब वो हावी हो रही थी |


 मणिमहेश कैलाश
अगले भाग में पढ़ें गुरूजी और साथियों की खोज और ग्लेशियर पार करने का रोमांचक किस्सा और आपको उन शख्सियत से भी मिलवाएंगे जिनका अभी तक मैंने जिक्र ही नहीं किया  |

इस यात्रा का अगला भाग यहाँ पढ़ें
                        


2 comments:

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  2. अति रोमांचक कहानी सरल शब्दों में प्रस्तुत करने का हुनर बखूबी सीख लिया है तुमनें । 👌👍

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