Friday, 3 March 2017

बाबा बन्दा सिंह बहादुर की याद में, मैदान-ए-जंग चपड़ चिड़ि, मोहाली, पंजाब


मैं तो बहुत व्यस्त हूँ
सांसारिक क्रियाकलापों में मस्त हूँ 
और आप तो हर जगह
फिर काहे आपको ढूंढने
निकलूँ हर जगह
बहुत मज़ा मुझको है आ रहा 
फिर भी जाने क्यों 
मन तेरी है सुन पा रहा
थोड़ी देर के लिए सही
जैसे पहले ग़ुम थे
वैसे ही हो जाओ 
ऐ मन माया में लिप्त हो जाओ 
लेकिन हक़ असल की ना 
जोत जगाओ
ये जोत शुद्ध घी ज्वाला 
जो सब कुछ खा जाए
पर्दा सच झूठ का 
साफ़ नज़र आए

हे! मेरे रहनुमा 
मैं क्या करूँ
तू ही सच्ची राह दिखा 
जिस पे चलूँ
मैं क्या करूँ

कहाँ जाऊँ
हर जगह ही तुम हो
जब थक जाता हूँ 
तब दिखते तुम हो
अच्छा तुम ही बताओ
कहाँ क्या है 
राह कौन सी की 
सीधा तुम्हें पाऊँ
घुमंतू इस मन से 
पीछा छुड़ाऊँ
आखिर कहाँ जाऊँ

हाँजी भाईसाहब
महीना होने को आया
कहीं गए नहीं

मेरे रहनुमा 
तुम नहीं कहाँ
खैर 
तुम तो हो हर जगह
जीवन के सम्पूर्ण अनुभव
और तुम्हारा अनुभव 
तौला गया सोना कहाँ 
धूल से भला
मेरे रहनुमा 
तू ही कोई उपाए सुझा    

मेरे रहनुमा
तेरे सवाल का जवाब तो मेरे पास नहीं
ख़राब साइकिल का पहला बहाना ही सही
या छुपा लूँ मैं आलस अपना व्यस्तता का दूसरा सुना
या शारीरिक कमजोरी का तीसरा बता
दवाई की ख़ाली डिब्बी दिखा
मेरे रहनुमा
अब तू ही कोई राह दिखा

हाँ भाई
कितना आसान है
हार मान लेना
बहाना बना लेना
दोष दूसरे पे डाल देना
जिम्मेदारी से मुँह मोड़ लेना

अच्छा रुक
एक कहानी सुनाता हूँ
तुझे सोये से जगाता हूँ


ध्यान से सुनना:

सिखों के इतिहास की
बता रहा हूँ एक वीर कहानी
जब मुग़लों ने अत्याचार कर
धर्म की दुर्दशा थी कर डाली
तब गुरु गोबिंद सिंह ने
दक्षिण की तरफ़ डेरा डाला
वैरागी एक ध्यान में आया बोलाबाला
गोदावरी किनारे सोच विचारी
दिखा एक मनुष्य साहसी अहँकारी
जो था अंदर से बलशाली
लेकिन सच्चे फूल से अनभिज्ञ 
था वो माली
सभी सूरतों ने एक दूसरे की
सूरत देखी
गुरु ने शिष्य की
मूरत देखी  
धर्म की रक्षा कर जिसने
अमर अपना नाम किया
गुरु वचन का निर्वाह किया

पैदल चलता हुआ 
सोच रहा हूँ
इतिहास की परतें 
खोल रहा हूँ
जब गुरु गोबिंद सिंह 
गए दक्षिण
शायद जानते थे 
अगला बन्दा मिलेगा वहीँ
शायद जानते थे 
जब मिला वो बन्दा
तो दोनों धन्य थे हुए
एक दूसरे की इच्छ्या के 
दोनों आदि शक्ति के 
पूरक थे हुए
और वो बन्दा भी क्या 
बन्दा निकला
गीदड़ों में छुपा
वो सिंह निकला

27  अकतूबर सन 1670

पुँछ की राजौरी में
किसान राम देव के घर में
लछमण देव ने जन्म लिया
लड़कपन से ही जिसने
शिकार के खेल को साध लिया

एक बार उसने एक हिरणी का शिकार था किया
प्राण त्यागते ही जिसने बच्चों को जन्म था दिया
आघात इस बात का उसके ह्रदय पर था हुआ
पश्चाताप में वह संसार से विरक्त था हुआ
वैरागी जानकी प्रसाद का शिष्य था बना
तभी लछमण देव से माधो दास नाम था हुआ

साधु राम दास से घुम्मकड़ी सीखी
योगी औघड़ नाथ से कला योग
गोदावरी किनारे चलते-चलते
जा बसा नंदेड़

सन 1708

मिला जब वो गुरु गोबिंद से
अज्ञान दूर था हुआ
कर्मयोगी को कर्म का
आदेश था हुआ
बना वो बन्दा गुरु का
पर गुरु ने बन्दा सिंह था किया

पाँच तीर नगाड़ा, निशान था दिया
और बन्दा सिंह से
बन्दा सिंह बहादुर बना था दिया
आज्ञा पा गुरु की
पंजाब को चला

कुछ ही समय बाद उसे
गुरु के ज्योतिजोत सामने का
समाचार उसे मिला
सिरहिंद के पठान के
विश्वासघात का पता चला

बन्दा सिंह बहादुर बना
मज़लूमों की सहायता करने को
अन्याय से लड़ने को
धर्म पर चलने को
गुरु के उद्देश्य का
उनके बाद भी पालन किया
और उनके जाने की ख़बर ने
इरादों को और मज़बूत बना दिया

पहले जीता सोनीपत
फिर बांटा समाना कैथल का खज़ाना
नज़र तो बन्दा सिंह बहादुर की सिरहिंद पर थी
पर अभी सेना को और शसक्त जो था बनाना
ऐसा चला सिंहो का विजय अभियान
जीत लिए घुरम थसका शाहबाद और मुस्तफाबाद
सिरहिंद न था अब बहुत दूर
कब्ज़े में लिए कपूरी सढ़ौरा और बनूर

बन्दा सिंह बहादुर की सेना को और शसक्त करने को
माझे और दोआबे के सिंह भी आये धर्म के लिए लड़ने को
खरड़ और बनूर के बीच सिंहो का मेल था हुआ
सिंहासन वज़ीर ख़ान का डांवांडोल था हुआ


चपड़ चिड़ि की लड़ाई :

वज़ीर खान थर-थर काँप था गया
तभी कूटनीति का उसने सहारा था लिया
सुचानंद के भतीजे को
बंदा को कमज़ोर करने को
हज़ार सिपाही देकर
बंदा सिंह की तरफ़ भेज था दिया
जिसने बगावत का झूठा ढोंग
बखूबी था किया

वज़ीर खान सिरहिंद का 
था बड़ा अहंकारी 
थी छल कपट से उसने हमेशा 
बाजी मारी
इस बार भी उसने 
रावल पिंडी संदेसा भिजवाया 
कहा मुस्लिम धर्म पर है 
संकट आया
तुम आओ फ़ौज लेकर 
काफ़िर को हराओ
अल्लाह का तुम 
हुक्म बजाओ
देखो कब से ये जंतर चलता आया 
धर्म  का सहारा ले इंसान लड़ाया 
खैर
अब तो समस्त भारत है 
इसने मार गिराया 
वज़ीर खान का अस्त्र
सियासत ने अपनाया

पर बन्दा सिंह बहादुर
मुग़ल फ़ितरत से कहाँ महरूम था
उसे अपने गुरुओं के साथ हुए विश्वासघातों का 
पूरा इतिहास मालूम था
हम सब जागें तो बन्दे का संकल्प पूरा हो 
धर्म से उठें तो वतन पूरा हो 

उस तरफ़ थे हाथी घोड़े तोपें
जो बड़ी तादात में इकट्ठी हुईं
और बंदूकों की गिनती 
अनगिणत हुई 
इस तरफ़ टूटे भाले
और तलवारें लड़-लड़ के 
धारहीन थीं हुईं

लड़ाई शुरू हुई
चपड़ चिड़ि के मैदानों में
मुग़ल सेना आश्वस्त थी बहुत
वज़ीर खान को विश्वास था बहुत
अपनी कूटनीति चालों में
जब भागा वो गद्दार
सिंह भी थे कुछ घबराए
लेकिन फिर बन्दा सिंह बहादुर
मैदान-ए-जंग में खुद चले आए


होंसला बुलंद हुआ सिंहों का
वाहेगुरु जी की फ़तेह के जयकारे लगाए

होंसले, विश्वास से भरपूर सिंहों ने फिर
बड़ी बहादुरी से लड़ाई लड़ी
मुग़ल सेना की बुरी हालात थी हुई
देख कर ये वज़ीर खान था घबराया
और बर्छे से बाज़ सिंह को मारने था आया
सिंह ने उसी का बर्छा उससे छीना उसी से
उसके घोड़े को मार गिराया
फिर चलाया तीर  वज़ीर खान ने
बाज़ सिंह के बाजु को निशाना बनाया
और तलवार निकाल अपनी
निहत्थे का सामना करने को आया
फ़तेह सिंह ने देखा ये दृश्य
वो पास ही था खड़ा
बाज़ सिंह की रक्षा करने को आगे बढ़ा
वार करने को आते वज़ीर खान के
सारे होंसले पस्त कर दिए
एक ही वार में उसके
दो टुकड़े कर दिए
वज़ीर खान के मरने की देर थी
मुग़ल सेना बिना नायक के
भटकते लोगों का ढ़ेर थी
और दहाड़ते सिंहों के आगे
जैसे लाचार भेड़ थी

जीता सिरहिंद बन्दा सिंह बहादुर ने
जहाँ गुरु गोबिंद के बच्चे चिनवा थे दिए
किया फ़तेह वो बुर्ज
जहाँ माता गुजरी ने प्राण
त्याग थे दिए
आज सूबा-ए-सिरहिंद पर
धर्म के परचम लहरा थे दिए



हाँ भाई
कहो कैसी रही
जी बहुत खूब कही
अभी चलता हूँ
साइकिल न सही
टाँगें तो हैं
घमण्ड न सही
हिम्मत तो है
और
चलने वाले कब
सवारी के मोहताज हैं हुए
किनारे बैठ कर कब
दरिया पार हैं हुए
और जो दम रखते हैं
वो अपने दम पर चलते हैं
मोटर गाड़ी साइकिल के कब
ग़ुलाम बनते हैं
और जब चलता हूँ खुद से बतियाने को
अपने अंदर की राह पाने को
उसी की तलाश में
फिर ये वक्त की पाबन्दी कैसी
समय का आडम्बर कैसा
और किस मुँह से कहूँ 
मैं व्यस्त हूँ
तुम्हारा दिया काम तो मुझसे किया ना गया

जी
मैं पैदल ही चला जाऊँगा
अब न कोई बहाना बनाऊँगा
चण्डीगढ़ सेक्टर 12 से
चपड़ चिड़ि का मैदान
कहाँ ज्यादा दूर है
और एक तरफ़ का 15 Km
आना-जाना 30 है
सीधा नाक की सीध है 
अब तो पैदल ही जाऊँगा
तभी बन्दे की 
वीरता पहचान पाऊँगा
इस यात्रा का क्या लिखूँ
क्या कहानी कहूँ 
और वृतांत लिख भी दूँ तो 
क्या मेरा औचित्य पूरा होगा 
बन्दा सिंह बहादुर के आगे 
मेरी कहानी का क्या महत्व होगा 
और क्यों कोई पढ़ना चाहेगा मुझे
जो मैंने वो लिखा ही नहीं 
जो सच इतिहासकारों ने मिटा दिया 
जो है मेरे दिल की आवाज़ 
उसे दबा कर रास्ते का 
वर्णण कर भी दूँ तो
फिर तो अपने मन की आवाज़
को मैंने दबा दिया
लिख दिया आज जो आया ज़ेहन में 
कलम के सब हिज़ाबों को मिटा दिया 
और पैदल 30 Km चला भी गया 
तो कौनसा मुकाम पा लिया
खैर
बीहड़ों में पैदल चलना फिर आसान है
क्योंकि वहां और कोई चारा नहीं
मुश्किल तो शहर है
शरीर चल है रहा 
मन है खड़ा
हर मोड़ पे ऑटोवाला पूछता है
कहाँ जाओगे
और मैं रहा स्तब्ध खड़ा

ओ बन्दे आ जाओ फिर से इस जहान में  
वज़ीर खान बन नशा हुक्म चला रहा 
और आज जनता आदि है हुई 
सुच्चानन्द ठहाका लगा रहा 
उसका भतीजा धर्म का चोगा पहना
कितनों के घर उजाड़ रहा

मेरे रहनुमा 
तेरी रज़ा में राज़ी मैं हुआ
क्या-क्या नहीं तूने मुझे दिखा दिया
धार्मिक तो वे थे जो इंसानियत के लिए सर कटा गए
आज फिर किसी ने धर्म के नाम पर दंगा करवा दिया






3 comments:

  1. Really creative one...We also salute ur will and enthusiasm for all ur blogs ...Really each and every sentence is very well crafted and full of information...

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  2. आसान नहीं इतिहास को पिरोना चंद शब्दों में,
    शब्द भी ऐसे जो रूह तक जाएँ....
    बहुत अच्छा लिखा है सौरभ...!!!!

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