Monday 1 August 2016

नीलकण्ठ महादेव लाहौल यात्रा भाग-2

बकरियों को चराते हुए 
मख्खन, सत्तू खाते हुए
पहाड़ जिनसे निकल रही हैं जल धाराएं 
जिनकी चोटियां स्वर्ग धरा पे खींच लाएं
मेने देखा है, 
भगवान को इन्हीं नीरव नील रूप में 
भोलेनाथ धो रहे हैं, अपने चरण 

नीलकण्ठ झील में......... 

केलांग -> थोलंग -> शांशा ->जाहलमाँ -> कवांग -> कमरिंग -> चोखंग -> नैनगार (बेस कैंप ) और नैनगार से 15 Km पैदल यात्रा नीलकंठ तक; यात्रा का रूट तो रट लिया था मैंने मगर लाहौल के पीरपंजाल का मिज़ाज़ कैसा है यह नहीं जानता था |
खैर 19 जुलाई को सुबह करीब 11 बजे हम नवीन जी के घर से निकले | नीचे सड़क पर पहुँचते ही केलोंग की तरफ जाने वाली बस मिल गई | वैसे हमें केलोंग जाने की जरुरत नहीं थी क्योंकि यही बस फिर केलोंग से घूम कर वापिस आकर नैनगार जाने वाली थी | हम तो सीट लेने के चक्कर में केलोंग घूम आये | 12 बजे केलोंग पहुंचे और बस नैनगार के लिए 1:30 बजे चलने वाली थी | यह प्रतीक्षा समय केलोंग दर्शन में कैसे बीत गया कुछ पता ही नहीं चला |



बस केलोंग से 2 बजे चली | शायद हमारे सितारे अच्छे नहीं थे, बस जाहलमाँ से 2 Km पहले खराब हो गई | खैर आधे घंटे बाद दूसरी बस भी आ गई लेकिन यह बस चोखंग तक ही जाने वाली थी | चोखंग पहुँच कर एक टाटा सूमो मिल गई जो कि हमें नैनगार तक ले गई | शाम 7 बजे हम नैनगार पहुंचे |



नैनगार में एक घर में बने होटल में रुके | होटल में बस दो ही कमरे थे | एक कमरा तो पहले से ही रिज़र्व था और दूसरा कमरा सालों से बंद पड़ा था | हमारे लिए वो दूसरा कमरा खोल दिया गया|  | कमरे में बिजली नहीं, बिस्तर नहीं, पलंग भी नहीं बस खाली कमरा और हमने अपने स्लीपिंग बैग बिछा कर कमरा रिज़र्व कर लिया | होटल की एक दीवार पर किसी भक्त द्वारा चार्ट पर बनाया गया यात्रा का रास्ता लगा था, हमने गहराई से उस रास्ते का अध्यनन किया और फिर नैनगार के सौन्दर्य को निहारने निकल पड़े | 

नवीन जी ने कुछ स्थानीय लोगों से बातचीत की तो पता चला कि कल सुबह 4 बजे गांव वाले भी नीलकंठ जाने वाले हैं | हमने भी गांव वालों के साथ चलने का निर्णय किया |
गांव वाले हर साल एक साथ नीलकण्ठ जा के वहां पूजा अर्चना करके भोलेनाथ को प्रसन्न करते हैं, हमारी खुशकिस्मती थी कि हमें भी उनके साथ जाने का मौका मिला | हिमालय के एक दूरदराज़ के गांव के सांस्कृतिक एवं धार्मिक पहलू को प्रत्यक्ष देखना वाकई सौभाग्य की बात है | कुछ गांव वाले नंगे पांव चल रहे थे, ऐसा कार्य सिर्फ एकाग्र आस्थावान, अविचलित भक्त ही कर सकता है |   
20 जुलाई को सुबह 4 बजे हम अपना सारा साजो-सामान लपेट कर गांव वालों के साथ यात्रा पर निकल पड़े | अंधेरे में करीब 40 लोग पंक्तिबद्ध तरीके से संकरी पहाड़ी पगडण्डी पे चलने लगे | पंक्ति में चल रहे लोग और पंक्ति में जल रहीं टोरचें ऐसे लग रहीं थी मनो टेडी दीवार पर जुगनू पंक्ति बनाए चल रहे हों | घंटे भर बाद भोर हुई और सब कुछ हिमालय के सामने बौना हो गया |


रास्ते में 2 छोटे नाले आये जिनमें पानी बहुत कम था और हमने उनको आसानी से पार कर लिया |
करीब 7:30 बजे हम अपने पहले पड़ाव इलियास पहुंचे | इलियास में गद्दियों के डेरे पर हमने अपना भरी सामान छोड़ दिया जिसमें टेंट, स्लीपिंग बैग आदि शामिल था | अब हम तीनो के पास सिर्फ एक बैग था | इलियास में गांव वालों ने पूजा अर्चना कि और प्रसाद स्वरूप मख्खन बांटा |



इलियास तक पहुंचना कोई ज्यादा मुश्किल  न था | रास्ता लगभग समतल ही था | 
इलियास से निकलने के घंटा भर बाद हम एक नाले के किनारे पहुंचे | यह नाला सबसे चौड़ा था |

 हमने जूते उतारे और जैसे ही मैंने पानी में पैर डाला दर्द सीधा खोपड़ी में हुआ | क्या ठंडा पानी था!!! अब भी याद करता हूँ तो गर्मी आ जाती है | गांव वालों को पार जाते देख हमने भी हिम्मत कि और नाला पार किया | उस पार पहुँचने तक पैर एक दम सुन हो चुके थे और उँगलियों में सुइयां चुभ रहीं थीं | नवीन जी के पिता जी ने सच ही कहा था कि यह नाला टांगों में से हड्डी खींचता है  | थोड़ी देर बाद सब ठीक हो गया और हमने जूते पहने और यात्रा जारी रखी |


अब यात्रा का रास्ता पथरीला हो गया था | पथरीले से मेरा अभिप्राय छोटे मोटे पत्थरों से नहीं हैं बल्कि उन पत्थरों से है जिनके ऊपर चढ़ने के लिए हाथ घुटने पे रख कर जोर लगाना पड़ता है | पथरीला रास्ता पार करने के बाद आगे एक हराभरा मैदान दिखाई दिया | लोगों से पता चला कि यहाँ एक बहुत बड़ी झील हुआ करती थी और उसका किनारा टूट जाने के बाद सारा पानी बह गया और यह मैदान बन गया | उसी मैदान के किनारे गांव वालों ने हमें छोले पूरी खाने को दी | थोड़ी देर रेस्ट करने के बाद हम फिर से चलने लगे |



अब चढाई आ गई थी और यात्रा का अंतिम चरण शुरू हो गया था | ढीले पत्थर चढाई को और मुश्किल बना रहे थे | खैर इलियास में खाए मख्खन ने अपना जादू दिखाया और आगे चलते हुए लोगों के भोलेनाथ के जयकारों कि आवाज़ ने होंसला बुलंद कर दिया  | गांव वाले हमसे पहले पहुँच गए थे और जब मैं पहाड़ी के ऊपर पहुँचने वाला था तो शंख बजने लगे और जैसे ही महादेव, झील और किनारे बने मंदिर के दर्शन हुए तो ऐसा मेहससूस हुआ मनो चारों और बस भोलेनाथ ही भोलेनाथ हैं | 11 बजे तक हम महादेव के दरबार में अपनी उपस्थिति दर्ज करवा चुके थे  |



 ऊपर भोलेनाथ और नीचे नीलकंठ झील | एक दम नीला पानी जैसे कि भोलेनाथ द्वारा पिया गया ज़हर यहीं अटका पड़ा हो |


 झील में डुबकी लगाने के बाद मंदिर में माथा टेका और गांव वालों द्वारा बनाया गया हलवा प्रसाद खाया | 
कुछ देर विश्राम करने के पश्चात् हम वापिस नैनगार के लिए चल पड़े |


 हम सोच रहे थे कि चौड़े नाले को नीचे कि तरफ से पार न करके ऊपर कि तरफ से ही पार कर लिया जाए; जहाँ बड़े बड़े पत्थरों के ऊपर से कूदते हुए हम दूसरी ओर पहुँच जाएं | हमने पामाल रास्ता छोड़ दिया और सीधा नाले के मुहाने कि तरफ बढ़ गए | 2:30 घंटे जूझने पर भी रास्ता नहीं मिला पर एक सबक जरूर मिल गया, "हमेशा उसी रास्ते पे चलें जिसपे स्थानीय लोग चलतें हैं, वही सबसे छोटा और सुरक्षित रास्ता है अपना दिमाग ज्यादा न चलाएं ऊंचाई पे ऑक्सीजन की वैसे ही कमी होती है और बुद्धी थकान के मारे भ्रष्ट" | हमेशा संयम से काम लें |     
जिन नालों में सुबह बहुत कम पानी था वह सभी अब उफान पे थे | दिन चढ़ने के साथ साथ धूप तेज़ हुई, बर्फ और तेज़ी से पिघलने लगी और नालों में पानी घुटनो से भी ऊपर तक चढ़ गया | बड़ी मुश्किल से हमने सारे नाले पार किये |    
7 बजे हम नैनगार पहुंचे | स्थानीय लोगों के साथ भोजन किया और वापिस होटल में आ के सो गए | 
21 जुलाई कि सुबह एक महिंद्रा पिकअप से जाहलमाँ तक पहुंचे | ये सफर कुछ ऐसा था जैसे किसी ने हमें डब्बे में बंद करके डब्बे को जोर जोर से हिला दिया हो और हम एक दूसरे पे गिरते पड़ते संभलते उछल रहे हों | मैं और गुरूजी तो अपने-अपने स्लीपिंग बैग पे बैठ गए लेकिन नवीन जी ने फिर से अपनी सहनशीलता का उदाहरण देते हुए सीधे पिकअप के फर्श पे बैठ कर सारा रास्ता तय किया | धन्य हों लाहौल के वासी! 
जाहलमाँ से बस में तांदी और तांदी से नवीन जी के घर पहुंचे | 
अगले दिन 22 जुलाई सुबह 4:30 कि जाहलमाँ-रेकोंगपिओ बस से हम मंडी पहुंचे और उससे अगले दिन 23 जुलाई सुबह 4:30 कि मंडी-चंडीगढ़ बस से मैं सुबह करीब 11 बजे चंडीगढ़ पहुंचा |

इस प्रकार मेरी 17 जुलाई से शुरू हुई यात्रा 23 जुलाई को ख़त्म हुई | 


मंडी का ऐतिहासिक शहर देख आया मैं 
मनाली कि सुबह कि ठण्ड झेल आया मैं 
रोहतांग कि विडम्बना महसूस करके 
केलोंग कि लेडी को सुना आया मैं 
नीलकण्ठ महादेव के दर्शन करके 
घेपण राजा का राज देख आया मैं |




2 comments:

  1. आपको ऐसे गुरूजी मिले है तो यात्रा शानदार होनी ही है। शानदार वृतांत व छायाचित्र अच्छे लगे। ऐसे ही घुमते रहे व लिखते रहे।

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  2. जी आपका बहुत बहुत शुक्रिया, मैं अपनी तरफ से पूरी कोशिश करूँगा और घूमने फिरने की ......

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