अक्सर साइकिल उठा चल देता हूँ,
जो सीख लेता हूँ वो लिख देता हूँ
Friday, 26 August 2016
भद्रवाह कैलाश यात्रा भाग-2
बाबा जी तेरे कुण्डलुए कुण्डलुए बाल विच माता गंगा विराजे हो गले तेरे नागडूआँ दे हार मथे तेरे चंदा साजे हो बाबा जी तेरे कुण्डलुए कुण्डलुए बाल......... (हे भोलेनाथ तुम्हारे कुण्डल केशों में माता गंगा का निवास है, आपके गले में नागों की माला है और आपके माथे पे चंद्रमा सुशोभित है........) यही पहाड़ी भजन गाते हुए गुरूजी और मैंने छतरगाला से कैलाश की ओर अपनी यात्रा 18 अगस्त दोपहर लगभग 1:30 बजे शुरू की | मौसम का मिज़ाज़ ठीक नहीं था | रात को बारिश हुई थी और भरी दोपहर में भी धुंध पड़ी हुई थी | अभी कुछ ही दूर चले थे कि कुत्ते के भौंकने कि आवाज़ सुनाई दी; कुछ और आगे बड़े तो आवाज़ और तेज़ हो गई और सामने था अपने डेरे कि रखवाली करता पहाड़ी कुत्ता | हम रुक गए लेकिन कुत्ता तो मानो हम पे टूट पड़ना चाहता था | डर-डर के थोड़ा और आगे बड़े तो देखा कि कुत्ता तो डेरे कि दीवार से बंधा है | परदेसियों को देख कर पागल हुआ कुत्ता मानो हमें काट कर अपनी वफ़ादारी का सबूत देना चाहता था, गनीमत थी कि बंधा था और हमने जल्दी जल्दी वहां से खिसकने में ही अपनी भलाई समझी | जहाँ का कुत्ता तक इतना चौकन्ना है वहां आतंकवादी पता नहीं कैसे घुस गए ? खैर कुत्ते से छूटे तो अगला रोड़ा कीचड ने अटका दिया | रात कि बारिश से भीगी हुई कीचड़ बनी पहाड़ों कि चिकनी मिटी में जूते धंसने लगे | कभी कभी तो ऐसे फिसल जाते जैसे गर्म तवे पे मख्खन फिसलता है | खैर कुछ और आगे जाने पर जंगल शुरू हो गया | मैं थोड़ा आगे आ गया था और जंगल का नज़ारा सुन्दर होने के साथ साथ डरावना भी था | एक दम आपबीती सीरियल कि शुरुआत में आने वाले सीन कि तरह ! मैं रुक गया और गुरूजी के आने के बाद हमने इक्कठे इसे पार किया | धुंध और ठंडी हवाएँ चल रहीं थीं, जिसमें न कुछ दिखता है और न कुछ महसूस होता है, पता चलता है तो फेफड़ों से नमी निचोड़ती सर्द हवा का और हम दोनों बैठ गए एक बड़े ठन्डे पत्थर पे; पानी पिया और कुछ तली हुई मूंगफली खाई | कुछ देर आराम करने के बाद एहसास हुआ कि जूते तो भीग चुके हैं खैर अब किया भी क्या जा सकता था | अगर मोज़े बदलते तो वो भी भीग जाते, कीचड में छप-छप करते हुए हम फिर से चल दिए अपनी मंज़िल कि ओर | आगे घास का मैदान था और मैदान ख़त्म होते ही बारिश से बचने के लिए बनायी गयी एक कोठरी | उस स्थान से दो रास्ते अलग हुए; एक चट्टान पे लगा सफ़ेद निशान ऊपर कि ओर जाने का इशारा कर रहा था और दूसरी ओर थी पगडण्डी जो सीधे-सीधे जा रही थी | हम सफ़ेद निशान द्वारा दर्शाये गए मार्ग पर चलते हुए ऊपर कि ओर बढ़ने लगे | चढाई और उसपे बिछी बड़े-छोटे पत्थरों कि चादर, देख कर ही होंसला पस्त हो गया | रास्ता अब कठिन हो गया था | सर्द तेज़ हवा और पसीने से भीगा बदन, ज़िन्दगी का असली स्वाद चखा रहे थे | खैर अब मैं लौट आया हूँ तो यही कहूंगा: " बहुत मज़ा आया ! " बड़े ढीले पत्थर और धुंध में सफ़ेद निशानों को तलाशतीं मेरी आँखें, दोनों ही लुका-छिपी खेल रहे थे | एक निशान के मिलने पे दूसरे को ढूंढता और फिर दूसरे निशान कि ओर बढ़ता | कुछ देर तो ये तरकीब काम आयी लेकिन फिर दूसरा निशान ढूंढे न मिला | मैं रुक गया पीछे से गुरूजी भी आ गए | सलाह करने के बाद हम फिर से चलने लगे शायद गुरूजी ने अपने त्रिनेत्र से रास्ते को पहचान लिया था और वो आगे-आगे पथप्रदर्शक बन चलने लगे | काफी दूर चलने के बाद हमें आखिरकार सफ़ेद निशान मिल ही गया | लगता है बीच में बड़े बड़े पत्थरों पर से गुजरते समय निशान लगाने वाला थक गया होगा या हो सकता है उसके चूने का बज़ट कम हो | खैर कुछ भी हो धुन्ध में सही रास्ता ढूँढना तो गुरूजी का ही कमाल था, मैं अकेला होता तो खो गया होता | धुन्ध इतनी घनी थी कि 10 m से आगे सब सफ़ेद | कुछ दूर चलने पे नियमित अंतराल पे निशान मिलने लगे और मैं फिर से आगे चलने लगा | चलते चलते एक बड़े पत्थर पे कुछ लिखा दिखा | धुन्ध बहुत थी तो पास जा के देखा तो लिखा था "WELCOME" | WELCOME हैं! किधर, कहाँ! यहाँ तो कुछ भी नहीं है; चारों ओर जिधर देखो पत्थर ही पत्थर, फिर ये WELCOME कहाँ को !!! गुरूजी भी आये और सोच विचार करके उन्होंने चोटी कि ओर लगे निशान कि तरफ चलने को कहा | चोटी पे पहुँच कर देखा तो वहां लगा था एक लाल रंग का झंडा | झंडे से थोड़ी दूर दूसरी ओर कि ढलान पे कुछ पत्थर पूरे सफ़ेद दिखे, जैसे निशान लगाने वाले ने बचा हुआ सारा चूना यहीं उड़ेल दिया हो | आब कहाँ जाएं, किस ओर है कैलाश इतनी धुन्ध में कुछ दिखाई भी तो नहीं दे रहा;हम दोनों ही असमंजस में थे | गुरूजी ने भोलेनाथ का जयकारा लगाया मैंने भी सीटी बजाई पर किसी का कोई जवाब नहीं आया | कुछ देर सोच विचार करने के बाद हमने दूसरी ओर कि ढलान से नीचे उतरने का फैसला किया | नीचे उतारना तो और भी मुश्किल था | इतने ढीले पत्थर कि गलत पांव पड़ते ही सीधा नीचे ही चले जाएं | नीचे कि ओर कुछ दिखाई भी न दे, धुन्ध ही धुन्ध आगे पीछे ऊपर नीचे | आगे आगे गुरूजी और पीछे पीछे मैं, चलते चलते गुरूजी ने पूछा अगर फिर से ऊपर चढ़ना पड़ा तो? बस उस समय मेरा चेहरा देखने वाला रहा होगा | खैर और नीचे उतरने के बाद हमें टीन कि चमकदार छत दिखाई दी और हमारी जान में जान आयी | चलिए मंज़िल तो दिख रही थी लेकिन वहां पहुंचना इतना भी आसान नहीं था, अभी बड़े बड़े पत्थरों को लांघना बाकि था | कुछ पत्थरों को पार किया तो झील भी दिख गई | क्या नज़ारा था और उस मोहित कर देने वाले रमणीय दृश्य को देख कर ये शब्द स्वतः ही ज़ेहन में आ गए : गर फिरदौस बर -रूएे ज़मीं अस्त ! हमी अस्तो ,हमी अस्तो ,हमी अस्त !!! अगर धरती पर कहीं स्वर्ग है , तो वो यहीं हैं , यहीं है , यहीं है लगभग 6 बजे तक हम भोलेनाथ के दरबार में हाज़री लगा चुके थे | एक टेंट में सामान रखा, झील में डुबकी लगा के सारी थकान मिटाई और भोलेनाथ के दर्शन किये | फिर फोटो वगैरा खींच कर हम बैठ गए अपने फौजी भाईयों के पास | एक फौजी भाईसाहब जो कि भरमौर से थे, उनके साथ हमारी काफी बातचीत चली | उनसे यह पता चला कि हम सीधा "कैलाश" चढ़ के आये हैं, सबसे मुश्किल और छोटे रास्ते से और जिसे हम धुंध समझ रहे थे वो तो बादल थे, जो कि कैलाश कि इस ओर से टकराकर, पर्वत की परीधि को छू कर अपना रास्ता तलाशतें हैं | जबकि सही रास्ता दूसरा था सीधी पगडण्डी वाला, जो कि पहाड़ कि दूसरी ओर से चलता हुआ बिना बड़े-बड़े पत्थरों से गुज़रे सीधा कैलाश कुण्ड तक आता है | आप अगर कभी जाएं तो बारिश से बचने के लिए बनाये गए आशियाने से दायीं (right) ओर के रास्ते से ही जाएं | इस रास्ते पे लाल रंग के निशाँ लगे हैं और रास्ते में पानी के सोते और आराम करने के लिए कई स्थान हैं | रात को ये भाईसाहब हमें गरम कम्बल भी दे गए | धन्य हों भारतीय सेना के जवान ! हमारे ही टेंट में दो लोग और रुके; उत्तम जी और कुलदीप जी,जो कि उधमपुर से मिचेल माता के मंदिर (35 km) और वहां से कैलाश कुंड (15 km) नंगे पांव ही आ गए | अगर कोई चीज़ उन्हें चला रही थी तो मैं कहूंगा कि ये थी उनकी गहन आस्था | दोनों बहुत ही नेकदिल और भोले इंसान हैं, एक दम फकीरी में जीवन यापन करते हैं और हमेशा खुश रहते हैं | अगली सुबह 19 अगस्त को हम तीनो ने मिल के झील मे स्नान किया | स्नान के बाद उत्तम जी और कुलदीप जी को अलविदा कह हम वापिस निकल पड़े | फौजी भाइयों ने हमें सही रास्ता समझा दिया | आज मौसम खुशनुमा था | धूप निकली हुई थी और नज़ारे तो देखते ही बनते थे | हमने लगभग 8 बजे नीचे उतारना शुरू किया | पत्थरों को पार करने के बाद पगडण्डी आ गई | कल वाले रास्ते कि तुलना में तो यह रास्ता हाईवे था | हम इसपे सरपट दौड़े चले जा रहे थे | इस रास्ते पे लाल पेंट से निशान लगे थे | कैलाश कि चढाई चढ़ने के बाद चोटी से सुदूर ज़ांस्कर के पहाड़ भी नज़र आने लगे | क्या नज़ारा है, "दूर ज़ांस्कर के पहाड़ नीचे बायीं ओर भद्रवाह और दायीं ओर पदरी गली पास कि हरी घास", ऐसे दृश्य तो मन मोह लेते हैं | 11 बजे तक हम नीचे उत्तर आये और नीचे छतरगाला में फौजी चौकी में बैठ गए | फौजी भाइयों के साथ चाय और खाना खाने के बाद हम बस का इंतज़ार करने लगे | हमारा इरादा तो बणी से बिछोली फिर लखनपुर हो के पठानकोट पहुँचने का था| 1 बजे एक मेटाडोर आयी जो कि बणी (60 km) जा रही थी | यह मेटाडोर बणी 3:30 बजे पहुंची और बिछोली कि ओर जाने वाली आखिरी बस 3 बजे ही निकल चुकी थी | रात बणी में बिताने के बाद 20 अगस्त को सुबह 5 बजे हमें सीधे लखनपुर कि गाडी मिल गई | लगभग 10:30 बजे हम लखनपुर पहुंचे और 11:30 बजे पठानकोट, वहां से गुरूजी अपने ससुराल चले गए और मैं मौसी के घर से साइकिल लेके करीब 1:30 बजे घर पहुंचा | बणी में रात रुकने का खर्च = 300 रुपए (दो लोगों का) रात का खाना = 100 रुपए (दो लोगों का) बणी से लखनपुर किराया = 500 रुपए (दो लोगों का) लखनपुर से पठानकोट = 50 रुपए (दो लोगों के) पठानकोट से घर = 1 घंटा साइकिल से (अकेला) इस तरह 16 अगस्त कि शाम से शुरू हुई मेरी भद्रवाह कैलाश यात्रा 20 अगस्त कि दोपहर को सम्पूर्ण हुई | चोला चुकी के गे असां दो पाड़ी जिना डुग्गरे दा देस हाँ दिखी लेया हरियां भारियां सोहनियां वादियां दे लोक माणु जिना ते रस्ता वो असां हाँ पूछी लिया बढे असां पहाड़ां च कुत्ते कि पूछी करी वैरी ओ पता नई कियां बड़ी गेया ? सुण्या था मीठी बड़ी डोगरी बोली मैं तां लिखने दा पेत भी सीखी लेया हिंदी अनुवाद : झोला उठा के गए हम दो पहाड़ी जिन्होंने डुग्गर(जम्मू और आस-पास) देश हाँ देख लिया सुन्दर हरी भरी वादियां के भोले लोग जिनसे रस्ता हाँ हमने पूछ लिया पहाड़ों में प्रवेश किया हमने एक कुत्ते से पूछ के (रखवाली वाले कुत्ते के सन्दर्भ में ) दुश्मन (आतंकवादी) पता नहीं कैसे घुस गया ? सुना था मीठी बड़ी है डोगरी बोली मैंने तो लिखने का भेद भी सीख लिया | बायीं और वापिस आने का और दायीं और जाने का समुन्दर तल से ऊंचाई का डाटा (गुरूजी की वेबसाइट से लिया हुआ)
Hi Saurabh I read this post immediately after reading ur expedition of the first part of cycle journey towards Kasauli. In between I read also ur post of reaching home. I can guess a remarkable improvement in your writing skill. Well-done 👍
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हैरान हूँ कि इतने श्रम से लिखी गयी और बेमिसाल चित्रों से सजी पोस्ट पर अब तक कोई पाठक क्यों नहीं पहुंचा । अद्भुत पोस्ट है जी
ReplyDeleteशानदार।
ReplyDeleteBhai mein Bhadarwah Ka rehne wala hoon. Aapne bahut Badia byan kiya hai.
ReplyDeleteHi Saurabh
ReplyDeleteI read this post immediately after reading ur expedition of the first part of cycle journey towards Kasauli. In between I read also ur post of reaching home.
I can guess a remarkable improvement in your writing skill.
Well-done 👍
Hi Saurabh
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शौरभ जी बहुत अच्छा लिखा आपने, और फोटो एक से एक बेहतरीन है।
ReplyDeleteशौरभ जी बहुत अच्छा लिखा आपने, और फोटो एक से एक बेहतरीन है।
ReplyDeleteBahut hi khoobsurat chitroke saath piroyi gayi kathaa.....Ghumo aur bharat bhraman karo ....:)
ReplyDeletekafi sundar nazara hai, athaah shram kiya aapne aur guruji ne. Bhagwaan ne bhi aapki yatra safal karwayi. boht badiya, lage raho!!
ReplyDeleteबहुत सुन्दर ... पहाडो कि याद आ गयी...!!!
ReplyDeleteAgar pathankot se via bani sidhe chattargala jaana ho to bus ka pta kahan se chlega
ReplyDeleteBasholi se?