Saturday 14 January 2017

अमृतसर से चण्डीगढ़ वापसी यात्रा (चण्डीगढ़-वाघा-चण्डीगढ़ साइकिल यात्रा अंतिम भाग-6)

निकलता हूँ यात्रा पर
तब एक लक्ष्य
सामने होता है
पाने को जिसको
निरंतर प्रयास होता है
वही दिखता है वैसे
अर्जुन को आँख जैसे
और उस तक पहुँचने को
उत्सुक ये मन होता है

अगर मैं कहूँ
की लक्ष्य ही प्रेरणा है
तो लक्ष्य पर पहुँच कर
लौट के आता कैसे
अगर मुसाफ़िर बन ये
कहूँ की चलना मेरा काम
तो फिर ये लक्ष्य कैसा
मेरे लिए तो हर जगह एकसमान जैसे

की क्या सीखा क्या देखा
क्या खोया क्या पाया
इस यात्रा से जीवन में
क्या बदलाव आया
यही सब सोचता हुआ
लौट आता हूँ
लक्ष्य पर पहुँच कर
माना कुछ देर ख़ुशी
का एहसास कर
भ्रमण विचरण कर
जब वापसी की राह
को देखता हूँ
फिर सोचता हूँ
भाई क्यों ये पंगा ले लिया ?
और बन हीरो
अब हो गई ना
सारी मोटीवेशन ज़ीरो
अब कैसे वापस जाएगा
कठिनाईयों से भरा रास्ता
कैसे काट पाएगा
और लक्ष्य को तो पा लिया
अब तो वापसी बाकी है
और जो है ली निगल
गले में फँसी वो लकड़ी बाकी है
और बन कछुआ
वो लकड़ी दबोच मैं लूँ
पर फिर भी संकोच में हूँ
की क्या करूँ क्या न करूँ
कैसे धीरज धरूँ
और अगर वो लकड़ी
दूँ मैं छोड़
फिर पंचतंत्र
तो सार्थक जाएगा हो
और ऐसा तो हर कोई सोचता है
की मैं तो अलग हूँ
मैं तो अलग हूँ सोचता
और मेरे साथ न होगा वो
जो सबके साथ है हुआ
और हो रहा
ये सोच तो शैतान की है
और यही कहूँगा की शैतान
लिहाज़ नहीं करता
बस एक गलत कदम और
वह आगोश में ले धरता
फिर रोएँगे माँ-बाप, भाई-बहन सब
यही सत्य है
और तुम
रखना भरोसा अपने रहनुमा पर
जो वो राह दिखाए उसी पे चलना
जिससे वो मिलाए उसी से तुम मिलना
जिससे वो बुलवाए उसी से बतियाना
और मेरा अनुभव तो यही है
यही है मेरा कहना
की जाना मुश्किल है और
बहुत मुश्किल
लौट के आना
इसलिए
संभल के तुम जाना
और उससे भी
संभल के लौट आना
की तुम नहीं जानते
जो बेवजह लड़ते भी हैं
वो हमसे कितना प्यार करते हैं

शाम के करीब 5 बज रहे होंगे | वाघा बॉर्डर से मैं अमृतसर की तरफ़ चल पड़ा | मैं पहले ही इरादा बना चुका था कि अमृतसर नहीं जाऊँगा | शहर के बाहर-बाहर से होते हुए जलंधर रोड़ तक आ गया | साइकिल चलता ही जा रहा हूँ, थकान की कोई सुध नहीं पर रात घिर आयी है और मैं ढूँढ रहा हूँ रात बिताने का कोई आशियाना | आखिरकार मैं सफ़ल हुआ और अमृतसर से लगभग 35 km बाहर एक ढाबे में कमरा ले लिया |

सुबह 5 बजे उठ गया और चल पड़ा चंडीगढ़ की ओर | ढाबे से ब्यास पहुँचा और वहां मिली दरिया के आस पास की धुंध जो कभी एक दम गहरी होती है और कभी एक दम पतली जैसे अँधेरे में किसी ने कोई तिलिस्म किया हो | वैसा ही तिलिस्म जैसा हम सब पे हुआ पड़ा है कि क्या सही क्या गलत हमें नज़र ही नहीं आता और हम सब जी रहे हैं दिखावे की ज़िन्दगी | जिसमें खुद को दूसरे से ऊँचा दिखाना ही हमारा लक्ष्य है |

यह धुंध हो जाती है गहरी
की मनो कह रही हो
मुझे पार करने की कैसी यह तुम्हारी रज़ा है
मैं तो बहुत बलवान हूँ कि कुछ न देखने दूँगी,
कि तुम हो उद्यमी तो तुम्हें खुद अपनी राह ढूँढ़नी होगी
और मैं इसके अंदर धीरज़ रख बढ़ता जाता तो ये
धुंध का गुबार पतला होता चला जाता
मानो मुझसे कह रहा हो कि लड़ोगे अगर
तो प्रकृति रास्ता भी देगी
लड़ना ही तो ज़िन्दगी है
ज़िंदादिली है
पर दिलोदिमाग को ठिकाने लगा के
तुम लड़ना, झूठी शान पर तुम न अकड़ना
प्रकृति भी माया उसी की सब जानती है उसी की तरह
समझो तो सही रहनुमा की गिरह

यह गिरह सुलझाते-सुलझाते कब ब्यास से करतारपुर तक का वो खतरनाक रास्ता पार कर गया पता ही नहीं चला |




करतारपुर में भोर हो गई है पर सूरज नहीं निकला | जलंधर जाकर कहीं सूर्यदेव के दर्शन हुए | जलंधर में चाय पी और जो कुछ खाने को मिला खाया (मट्ठी,बन,फैन ) जलंधर से फगवाड़ा और फगवाड़ा से नवांशहर रोड़ पे चलने लगा | अब मैं साइकिल चलाते हुए सोच रहा हूँ कि अगर मैं अकेला न आता तो मुझे बँटवारे के दर्द का एहसास कभी होता ही नहीं | मैं भी मशगूल रहता बातों में, हंसी मज़ाक में और इस दर्द का ख्याल ग़र आता भी तो मैं शायद इसे किनारे कर देता पुराने कपड़ों की तरह जो आपको पसंद तो बहुत हैं पर उनपे लगा वो दाग़ आपको अच्छा नहीं लगता |
शायद ये मेरे रहनुमा की मर्जी है, उसी का कोई इशारा है |



वापसी के समय जब आप वैसे ही थोड़े उदास होते हैं कि जिस लक्ष्य को पाने गए थे वह तो पा लिया अब बोरिंग वापसी बाकी है | अगर मोटरसाइकिल पे होते तो कान मरोड़ देते बाइक का, अगर कार में होते तो गाड़ी के पैर की छोटी ऊँगली दबा देते अपने पैर से और गाड़ी नॉनस्टॉप पहुँच जाती घर; लेकिन यह साइकिल है साहब ज़ोर माँगती है, थके हों या हों ऊर्जावान यह कहाँ फ़र्क पहचानती है | यह बस ज़ोर से चलती है और शरीर का ज़ोर माँगती है फिर भूखे हों या पेट भरे अंग्रेज़ी सरकार कि तरह कोई रहम नहीं करती तभी मुझे इसपे भरोसा है मोटर गाड़ी पे नहीं और यह तो इतनी हल्की है कि कंधे पे उठा के भी घूम सकता हूँ |

फगवाड़ा से नवांशहर-चंडीगढ़ की तरफ़ मुड़ गया | इस रास्ते पर आप जितना चाहें उतना तेज़ चल सकते हैं | ट्रैफिक कम है और अच्छी सड़क है | नवांशहर पहुँचते-पहुँचते भूख लग गई | आखिरी पेट भर कर खाना मनदीप के घर खाया था, यात्रा की पहली रात में, उसके बाद 14 केले खाये थे जालियांवलबाग के बाहर केले के ठेले पर जहाँ मैं अपनी साइकिल छोड़ गया था और ढाबे पर रात के खाने का पूछो मत, मंगवा तो ली पर खायी न गई तंदूरी लक्कड़ रोटी और फुलनमक दाल मखनी जिसको सूंघ कर मैं बता सकता था कि यह 4 दिन पुरानी थी | उस रोटी का अगर सुदर्शन चक्र बना ख़ानसामे की गर्दन पे मरता तो वो भी टूट जाती ! खैर यह अतिशयोक्ति हो गई पर वो रोटी चबाई ना गई थी |


नवांशह पहुँच कर एक कुलचे वाले के पास रुका | अक्सर कुलचे वालों के पास उबले आलू या उबले चने मिल जाते हैं और इस समय इन सबसे बेहतर क्या होता ?


देसी बन्दे की देसी खुराक; हाँ! यही कहा था उस कुलचे वाले ने |
उसके इस वाक्य के साथ हमारी उच्चस्तरीय बहुआयामी बातचीत शुरू हुई और हमने बातों ही बातों में इस देश की तमाम मुश्किलों का हल निकाल डाला | यह देश धन्य है जहाँ चाय वाला प्रधानमंत्री है, कुलचे वाला चाणक्य और एक बेरोज़गार इंजीनियर साइकिल पे घूम रहा है और वो वह सब सीखता है जो उसके प्रोफेसर ने कभी पढ़ाया ही नहीं!!! "ख़ालिस ज्ञान"| आज कुछ सीखने की नहीं सीखा हुआ भूलने की ज़रुरत है | हम साले सब कितने होशियार हो गए हैं, "Now it is time to unlearn and return Back To Basics".
यह मेरे नहीं कुलचे वाले के ख्याल हैं!!!
मैंने पूछा तो नहीं पर सोचता हूँ कहीं वो भी इंजीनियर तो नहीं था | ऐसे उच्चविचार तो बेरोज़गार इंजीनियर के ही हो सकते हैं !!!


बलाचौर ज्यादा दूर नहीं है यहाँ से बस चलते रहो और आप पहुँच जाओगे ठिकाने पर | बलाचौर से रोपड़ और वहाँ से कुराली और कुराली से न्यू चंडीगढ़ वाली रोड़ |


अभी दो बज रहे हैं, पहली जनवरी 2017 के और घंटे भर में मैं अपने कॉलेज पहुँच जाऊँगा | 30 दिसम्बर दोपहर 1 बजे शुरू की थी ये यात्रा और अब अंतिम पड़ाव में है, पर वो ख़ुशी पता नहीं कहाँ है जो इन हालातों में मैं महसूस करता हूँ | आज मैं ख़ुश नहीं और ये यात्रा मुझे कभी ख़ुशी दे भी न पाएगी | हाँ, मैंने जाना बँटवारे को, उसके दर्द को, वाघा की सरहद को और अपने संवेदनशील एहसास को | हे! मेरे रहनुमा उन सभी को मुक्ति दे जिनको चिता की आग और कब्र की मिट्टी तक नसीब न हुई | उन्हीं बेकसूर रूहों के नाम...........


अज आखाँ वारिस शाह नू कितों कबराँ विचों बोल
अज किताब-ए-इश्क़ दा कोई अगला वरका फोल
इक रोई सी ती पंजाब दी वे तू लिख-लिख मारे वैण
अज लखां तीयाँ रोंदीयाँ तेनू वारिस शाह नू कैण
वे दर्दमंदा देया दर्दीया उठ तक अपना पंजाब
अज वेले लाशां बिछियाँ ते लहू दी भरी चेनाब
आज वारिस शाह को पूछती हूँ एक सवाल
कब्र से अपनी चाहे तुम जवाब बोलो
आज इश्क़ की किताब का अगला पन्ना खोलो
एक (हीर) पंजाब की बेटी जब थी रोई
लिख-लिख मारीं तुमने तोहमतें कसूरवारों की थू-थू थी होई
आज लाखों बेटियां हैं रोयीं पंजाब में
तुझसे कर रहीं सवाल जलीं जो बँटवारे की आग में
उठ दर्दमंदों के हमदर्द देख क्या हुआ आज पंजाब में
आज खेतों में लाशें हैं बिछी और लहू बहता चेनाब में
किसे ने पंजाँ पाणियाँ विच दित्ती ज़हर रला
ते ओहना पाणियाँ तरत नूँ दित्ता पाणी ला
इस ज़रख़ेज़ ज़मीं दे लूँ-लूँ फुटया ज़हर
गिठ-गिठ चड़ियाँ लालियाँ फुट-फुट चढ़या कैर
किसी ने पाँचों दरियाओं में घोल ज़हर दिया
और इनके ज़हरीले पानी ने धरती को सींच दिया
इस उपजाऊ धरती पर अंकुरित हो आया है ज़हर
खून से लाल हुई है यह और हर तरफ़ फूटा है कहर
विऊ वलिसी वा फिर बण-बण वग्गी जा
हर एक बाँस दी वंजली दित्ती नाग बणा
पहलाँ डंग मदारियाँ मन्तर गए ग्वाच
दूजे डंग दी लग्ग गई जणे खणे नू लाग
लागाँ किले लोक मुँह बस फिर डंग ही डंग
पलों-पले पंजाब दे नीले पे गए अंग
यह ज़हरीली हवा जो वन-वन में लगी चलने
हर बाँस की बाँसुरी लगी नाग बनने
सबसे पहले वो डसे जो जानते इसका इलाज
दूसरे डंग से तो सबके हुए यही मिज़ाज  
बढ़ते-बढ़ते इन नागों ने सबके होंठ लिए डंग
और अच्छे भले पंजाब के नीले पड़ गए अंग
गलयों टूटे गीत फिर तकलियों टूटी तंद
तरिन्जनो टुटियाँ सहेलियाँ चरखड़े घुकर बंद
सणे सेज़ दे बेड़ियाँ अज लुड्डण दित्ती ऱोड़
सणे डालियाँ पींघ अज पीपलाँ दित्ती तोड़
गले से गीत न निकला फिर तकली से धागा टूटा
सहेलियाँ बिछड़ गयीं और चरखा भी छूटा
मल्लाहों ने सारी किश्तियाँ बहा दी सेज़ के साथ
पीपल पे पड़ा झूला भी तोड़ा डाल के साथ
जित्थे वजदी फूँक प्यार दी ओ वँझली गई ग्वाच
राँझे दे सब वीर अज भुल गए उसदी जाँच
धरती ते लहू वस्या कबरां पइयाँ चोण
प्रीत दियाँ शहज़ादियाँ अज विच मज़ाराँ रोण
अज सब्बे कैदों बण गए हुसन इश्क़ दे चोर
अज कित्थों ल्याइए लब के वारिस शाह इक होर
अज आखाँ वारिस शाह नू कितों कबराँ विचों बोल
अज किताब-ए-इश्क़ दा कोई अगला वरका फोल

ग़ुम हो गई वो बांसुरी जो बजती थी मार प्यार की फूँक
राँझे के भाई सब इसकी कला गए भूल
धरती पर बरसा लहू कब्रों में खून टपकने लगा
पंजाब की लड़कियाँ पर सारी विछोह का दर्द हावी हुआ
प्यार के चोर आज सभी औरतों के व्यापारी गए हैं बन
और कहाँ से ढूँढ़ के लाएँ आज वारिस शाह एक और हम
  
आज वारिस शाह को पूछती हूँ एक सवाल
कब्र से अपनी चाहे तुम जवाब बोलो
आज इश्क़ की किताब का अगला पन्ना खोलो  


(-अमृता प्रीतम)
(हिंदी अनुवाद मैंने खुद किया है | आपके सुझाव एवं सुधार सादर आमंत्रित हैं, भूल-चूक माफ़ कीजिएगा पर प्रकाश में ज़रूर लाईएगा |)



यात्रा विवरण 

पहला दिन

100 km - चंडीगढ़ से गढ़शंकर - 4:30 घण्टे----खर्च = ० रुपए

दूसरा दिन

140 km - गढ़शंकर से अमृतसर (वाया बंगा-जलंधर-ब्यास-अमृतसर-स्वर्ण मंदिर)- 7 घण्टे---- खर्च = 20 रुपए (चाय+मट्ठी)
34 km - अमृतसर से वाघा बॉर्डर- 1:30 घंटा----- खर्च = 50 रुपए (14 केले)
34 km -  वाघा बॉर्डर से अमृतसर वापसी- मैप नहीं बनाया ---खर्च = ० रुपए
48 km- अमृतसर से थोड़ा पीछे से ढाबे तक- 3 घण्टे ---- खर्च = कमरा 400 रुपए (न्यू ईयर करके महँगा मिला) + रात का खाना 100 रुपए (खाया नहीं गया) + पानी की बोतलें = 50 रुपए
कुल = 620 रुपए
दूसरे दिन की कुल दुरी = 140 + 34 + 34 + 47 = 255 km

तीसरा दिन

196 km - ढाबे से चंडीगढ़ (रइया-ब्यास-जालंधर-फगवाड़ा-नवांशहर-रोपड़-कुराली-चंडीगढ़)- 10:30 घण्टे --- खर्च = 20  (रुपए जालंधर में चाय,बन,मट्ठी) + 40 रुपए (कुलचे वाले के पास पेट भर के उबले आलू खाए)

यात्रा की कुल दूरी = 100 + 255 + 196 = 551 km
(अमृतसर में साइकिल स्टैंड की खोज में भटकना, शहर के अंदर ट्रैफिक से बचने के लिए साइकिल उठा कर तय की गई दूरी, पैदल तय किया गया रास्ता/भ्रमण शामिल नहीं)

कुल दूरी = 550 km
कुल समय = 50.5 घण्टे (30 दिसम्बर दोपहर 1 बजे से 1 जनवरी 2017 दोपहर 3:30 बजे तक
साइकिल चलाने का कुल समय = 28 घण्टे
कुल खर्च = 680 रुपए  














5 comments:

  1. very well written as usual...very touching and inspiring...

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  2. very well written as usual...very touching and inspiring...

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  3. शब्दों में व्यक्त करना कठिन है कि कितना अच्छा लिखा है, बस ये कहना चाहूंगा की गुरूजी का गुरूर बिलकुल सही है कि उन्होंने तुम्हें ब्लॉग्गिंग की दुनिया से जोड़ा। और तुम्हारे क्या ही केहने जो पञ्च शताब्दी करके भी तनिक थकान ना दिखायी।

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  4. जी आप सबका बहुत-बहुत शुक्रिया

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